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असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।।श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा लिखित

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असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।। श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा लिखित  Published by Naveen Singh Rana  सभी भाई,बंधू एवं मित्रगणों को ज्योति पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। यह देखा जा सकता है कि आज-कल कोई भी तीज त्यौहार, समुदाय विशेष, धर्म विशेष अथवा क्षेत्र विशेष की मान्यताओं के आधार पर नहीं मनाये जाते। हर व्यक्ति, हर क्षेत्र तथा हर समुदाय तक सोशल मीडिया की पहुंच हो जाने के कारण सभी पर्व मीडिया में दिखाये जा रहे तौर तरीकों की नकल करते हुए मनाये जाते हैं जो अक्सर मनोरंजक,लोक लुभावन और व्यवसायिक उद्देश्यों को ध्यान में रख कर दिखाये जाते हैं ।स्वयं को आधुनिक तथा ग्लैमरस दिखाने एवं रील बनाने के चक्कर में लोग इन सबका अंधानुकरण भी करते हैं।  परन्तु आज हम चर्चा करेंगे राणा समाज द्वारा मनाये जाने बाले त्योहार "दिवारी" की , जिसको तथाकथित बुद्धिजीवियों तथा लेखकों द्वारा रहस्यमय बना दिया गया है। हम अक्सर "ल" की जगह "र" अक्षर का उच्चारण करते हैं। अतः दिवाली से दिवारी शब्द प्रचलन में आ गया।लोगों ने लिखा है कि राणा लोग (थारु जनजाति) दीपावली क...

थरुहट की आत्मकथा - आत्म संघर्ष और अस्तित्व की कहानी✍️ नवीन सिंह राणा

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थरुहट की आत्मकथा - आत्म संघर्ष और अस्तित्व की कहानी ✍️ नवीन सिंह राणा  तराई की उर्वर भूमि में बसा हुआ मैं, थरुहट। आज मुझे लोग ‘थरुआट’ के नाम से जानते हैं, पर मेरी कहानी सदियों पुरानी है। इस भूमि पर राणा राजपूतों ने अपने कदम उस समय रखे, जब उनकी प्यारी वसुंधरा ‘थार’ संकटों के घेरे में थी। मुझे अब भी याद है वे कठिन समय, जब ये लोग अपनी धरा, अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति को छोड़कर यहां, मेरे पास आ बसे थे। वह एक असहनीय पीड़ा का समय था, जब इन्हें अपने अस्तित्व और अपनी संस्कृति के सरंक्षण के लिए अपने घरों को त्यागना पड़ा था। उनके चेहरों पर छाई चिंता, दिलों में धड़कता डर, पर साथ ही, इरादों में एक अटूट संकल्प – मुझे सब कुछ अब भी याद है। जब वे पहली बार आए तो सबसे पहले मेरे एक कोने में, जिसे आज मीरा बारह राणा के नाम से जाना जाता है, पड़ाव डाला। बारह राणा राजपूतों का एक जत्था था, और उनके साथ उनकी प्रजा भी थी। इन राजपूतों ने एक अनकही जिम्मेदारी का बोझ उठाया था – अपने लोगों की सुरक्षा और अपनी विरासत का संजोना। जंगल, दलदल, और बीमारी से घिरी तराई की भूमि में वे घबरा सकते थे, पर उनके इरादों में दृढ...

क्यों जरूरी है संस्कारी शिक्षा हमारी आधुनिक नई पीढ़ी को? एक विचार ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा

क्यों जरूरी है संस्कारी शिक्षा हमारी आधुनिक नई पीढ़ी को? एक विचार ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा  हमारे राणा थारू समाज का गौरवशाली इतिहास हमें हमेशा अपने स्वाभिमान और मूल्यवान संस्कारों की प्रेरणा देता है। यह एक ऐसा इतिहास है जो स्वाभिमान, साहस, और नैतिकता की मजबूत नींव पर टिका हुआ है। लेकिन वर्तमान पीढ़ी में जिस प्रकार नैतिक गिरावट देखने को मिल रही है, उसे अनदेखा करना हमारे समाज के लिए अत्यधिक नुकसानदायक हो सकता है। आज, शिक्षित होने के बावजूद, हमारी नई पीढ़ी कई नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों से विमुख होती जा रही है। इसका कारण मात्र शिक्षा का अभाव नहीं है, बल्कि संस्कार युक्त शिक्षा की कमी भी है। संस्कार युक्त शिक्षा क्यों आवश्यक है? संस्कार युक्त शिक्षा केवल किताबों में ज्ञान नहीं देती बल्कि एक व्यक्ति को नैतिकता, संयम, सहानुभूति, और विवेक का महत्व भी समझाती है। यह शिक्षा जीवन में सही और गलत के बीच भेद करना सिखाती है और व्यक्ति को समाज के प्रति जिम्मेदारी का बोध कराती है। इसके बिना, व्यक्ति केवल पढ़ाई में पारंगत हो सकता है लेकिन नैतिक मूल्यों की कमी के कारण गलत निर्णय ले सकता है। संस्कार ...

तराई की आत्मकथा और राणा थारू समाज

तराई की आत्मकथा और राणा थारू समाज  ✍️नवीन सिंह राणा  मेरा नाम तराई है, और मैं उत्तराखंड के उस क्षेत्र की गाथा हूँ, जो कभी ऋषि-मुनियों की तपोस्थली हुआ करती थी। मेरे आंचल में सीता माता ने वनवास के दिन बिताए, और यहाँ ही महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। मैंने पांडवों का अज्ञातवास देखा, अर्जुन का पराक्रम भी यहीं का हिस्सा बना जब उसने कौरवों को पराजित कर विराट राजा की गायों को सुरक्षित लौटाया। मेरे घने जंगल और शांत धाराएँ हमेशा से ही वीरों और तपस्वियों का आश्रय स्थल रही हैं। समय के साथ, मेरी भूमि विदर्भ के राजाओं के अधीन आई, जिनके पास अनगिनत पशुधन था। मैंने राजाओं के किले देखे और युद्धों की गूंज सुनी। कीचक का वध मेरे वन-क्षेत्र किच्छा के पास हुआ, और भीमसेन की वीरता का साक्षी मैं बना। फिर गुप्त काल आया और कत्यूरियों का शासन हुआ। उनके काल में मेरी समृद्धि चरम पर थी, लेकिन धीरे-धीरे उठा-पटक ने मुझे त्रस्त कर दिया। मुगलों के आक्रमणों ने मेरी शांति को तोड़ा, और मैं संघर्ष की भूमि बन गई। जब मुगल आए, उन्होंने मेरे हिस्सों पर अधिकार जमाया। अकबर ने मुझे राजा रूद्र चंद को सौंपा, और इस चंदवंश न...

खुशहाल राणा थारू समाज: बुरी आदतों को छोड़कर प्रगति की ओर"

"खुशहाल राणा थारू समाज: बुरी आदतों को छोड़कर प्रगति की ओर" ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा  राणा थारू समाज, जो अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक धरोहर के लिए प्रसिद्ध है, सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करते हुए एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। इस समाज की खुशहाली और प्रगति के लिए जरूरी है कि इसके लोग अपनी आदतों और मानसिकता में सकारात्मक बदलाव लाएं। खुशी और संतुलन एक स्थायी प्रक्रिया है, जिसे कई छोटी-छोटी आदतों को बदलकर हासिल किया जा सकता है। इस संदर्भ में कुछ आदतों को छोड़ने का महत्व राणा थारू समाज के लिए गहरे प्रभाव डाल सकता है। 1. ओवरथिंकिंग (अधिक सोचने की आदत छोड़ना) राणा थारू समाज के बहुत से लोग अस्थिर आर्थिक स्थितियों और सीमित संसाधनों की वजह से ओवरथिंकिंग की आदत में फंस जाते हैं। वे भविष्य की अनिश्चितताओं और परेशानियों को लेकर अत्यधिक सोचते हैं, जिससे मानसिक तनाव और चिंता बढ़ती है। इससे समाज के लोग अपनी प्रगति की दिशा में कदम उठाने से डरने लगते हैं। ओवरथिंकिंग छोड़ने से लोगों में आत्मविश्वास और साहस बढ़ेगा, जिससे समाज के युवा और अन्य सदस्य नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैय...

होरी का महत्त्व: परंपरा, इतिहास और विज्ञान✍️ नवीन सिंह

होरी का महत्त्व: परंपरा, इतिहास और विज्ञान ✍️ नवीन सिंह  होली या होरी केवल एक त्योहार नहीं है; यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। यह रंगों का उत्सव जहाँ धार्मिक और सामाजिक तात्पर्य से जुड़ा है, वहीं यह प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने और परंपरागत पूजा पद्धतियों से भी गहराई से संबंधित है। हमारे समाज में 'मरी होरी' और 'जिंदी होरी' जैसे प्रथाओं का अनोखा सांस्कृतिक महत्व है, जो आज भी कई सवालों को जन्म देता है। राजवीर सिंह राणा और पुष्पा राणा द्वारा साझा किए गए विचार हमें होली के पारंपरिक और वैज्ञानिक पहलुओं से जोड़ते हैं। इस लेख में, हम इन दोनों वक्ताओं के विचारों को विस्तार से समझेंगे और होरी की परंपरा, पूजा पद्धति, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को एक नई रोशनी में देखेंगे। होरी: परंपरा और पूजा होरी, जैसा कि राजवीर सिंह राणा ने विस्तार से वर्णित किया, हमारी प्राचीन परंपरा का हिस्सा है। 'होली' शब्द से बदलकर 'होरी' का उपयोग और 'हुरक माता' की पूजा इस बात का प्रमाण है कि यह त्योहार हमारे समाज में केवल उत्सव से अधिक रहा है। यह हमारी फसलों के पकने और ग...

जीवन की सच्ची धरोहर: राणा थारू समाज के संदर्भ में एक संदेश

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जीवन की सच्ची धरोहर: राणा थारू समाज के संदर्भ में एक संदेश ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा  रतन टाटा जैसे महान और सफल उद्योगपति के अंतिम शब्द हमें यह एहसास कराते हैं कि जीवन की सच्ची कीमत केवल धन और वैभव में नहीं है, बल्कि उसमें है, जिसे हम अपनों के साथ साझा करते हैं। यह संदेश न केवल वैश्विक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि हमारे राणा थारू समाज के लिए भी एक महत्वपूर्ण विचार है, क्योंकि यह एक ऐसा समाज हैं, जो अपनी परंपराओं, संस्कृति और आपसी मेलजोल पर गर्व करता है। हमारे समाज में जब हम संपन्नता की बात करते हैं, तो यह केवल भौतिक संपत्ति तक सीमित नहीं होनी चाहिए। हमारे बड़ों ने हमें सिखाया है कि सच्ची संपत्ति हमारे रिश्तों, हमारे जीवन के मूल्य और हमारी सांस्कृतिक धरोहर में है। चाहे हम कितनी भी जमीन-जायदाद, पैसा, या व्यवसाय खड़ा कर लें, अंतिम समय में यह सब कुछ उतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता जितना कि हमारे अपने लोग, हमारी समाज की एकता, और हमारे द्वारा किए गए सद्कर्म होते हैं। जैसा कि रतन टाटा ने बताया, जीवन की सच्ची खुशी भौतिक वस्तुओं में नहीं, बल्कि हमारे रिश्तों में है। राणा थारू समाज की पहचान ही...

थारू समाज के विभेद

थारू समाज के विभेद  ✍️ नवीन सिंह  थारू समाज एक प्राचीन और विविधतापूर्ण जनजातीय समाज है, जो नेपाल और भारत के तराई क्षेत्रों में निवास करता है। इसके विभिन्न उप-समूह कठरिया थारू, राणा थारू, पश्चिमा थारू, डंगोरिया थारू और नवलपुरिया थारू के रूप में जाने जाते हैं। ये सभी उप-समूह सांस्कृतिक, सामाजिक और भौगोलिक आधार पर एक-दूसरे से कुछ भिन्न हैं, हालांकि इनकी मूल पहचान एक जैसी है। इन उप-समूहों के बीच अंतर मुख्य रूप से उनके भौगोलिक स्थान, सांस्कृतिक परंपराएं, सामाजिक संरचना और जीवन-यापन के तरीकों पर आधारित है। आइए इन उप-समूहों के बीच के मुख्य अंतरों पर एक विस्तृत दृष्टि डालें। 1. कठरिया थारू कठरिया थारू उप-समूह विशेष रूप से अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के लिए जाना जाता है। कठरिया नाम उनके सामंती अतीत और कठोर शासन प्रणाली से जुड़ा है। भौगोलिक स्थान: कठरिया थारू मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश (भारत) के बहराइच, लखीमपुर खीरी, बलरामपुर और नेपाल के मध्य और पश्चिमी तराई क्षेत्रों में बसे हुए हैं। सामाजिक स्थिति: ऐतिहासिक रूप से, कठरिया थारू जमींदारी और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए जाने जात...

होरी में छिपी है हमारी परम्परा

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होली में छिपी है हमारी परंपरा सामान्य परिचय    होली जिसे राणा थारू समाज में होरी या हुडका माता कहकर संबोधित किया जाता है ,इस होरी त्यौहार का राणा थारू समाज में एक अलग ही महत्व है । वैसे तो यह त्यौहार सम्पूर्ण भारत में सभी धर्मो के लोग अपने अपने तरीके से मनाते हैं लेकिन जिस तरह से हमारे राणा थारू समाज के लोग पहले से मनाते आये हैं वाकई में एक अलग परंपरा को प्रदर्शित करता है। होली की पारंपरिक वेशभूषा    पारंपरिक वेशभूषा में राणा थारू समाज की होली खेलती हुई महिलाएं होली के सम्बंध में मान्यताएं  होली का त्यौहार हमारे राणा थारू समाज में दो तरह से मनाया जाता है, पहला होलिका दहन से पहले, जिसे सभी लोग जिंदा होली के नाम से जानते है। और दूसरा प्रकार होलिका दहन के बाद जिसे मरी होली के नाम से जाना जाता है। राणा थारू समाज के कुल सभी गांवों में से कुछ गांवों में जिंदा होली और कुछ गांवों में मरी होली बहुत ही पुराने समय से मनाते हुए आ रहे हैं।  जिसको मनाने की अलग अलग मान्यताएं हैं, होली मनाने का तरीका या ढंग      होरी का त्यौहार मन...

हिंदी संस्कृत भाषा अनुवादक

Hindi-Sanskrit Language Translator Hindi-Sanskrit Translator Tool Hindi Sanskrit Translate Translated Sanskrit Text: body { font-family: 'Arial', sans-serif; background-color: #e0f7fa; margin: 0; padding: 0; } .container { max-width: 600px; margin: 50px auto; padding: 20px; background-color: #fff; border-radius: 10px; box-shadow: 0 4px 10px rgba(0, 0, 0, 0.1); } h1 { text-align: center; color: #00695c; font-size: 24px; margin-bottom: 20px; } .translator { display: flex; flex-direction: column; } textarea { width: 100%; height: 120px; padding: 10px; margin-bottom: 15px; border: 1px solid #b2dfdb; ...

राणा समाज के संघठन प्रश्नोत्तरी

राणा समाज के संघठन प्रश्नोत्तरी  ✍️ नवीन सिंह राणा  नीचे राणा थारू समाज के दो प्रमुख संगठनों राणा थारू युवा जागृति समिति और राणा थारू परिषद पर आधारित 40 प्रश्नों की बहुविकल्पीय प्रश्नावली दी गई है। प्रत्येक संगठन के लिए 20 प्रश्न तैयार किए गए हैं: --- राणा थारू युवा जागृति समिति पर आधारित 20 प्रश्न 1. राणा थारू युवा जागृति समिति की स्थापना किस वर्ष हुई थी? (A) 1990 (B) 1985 (C) 2000 (D) 2017 2. राणा थारू युवा जागृति समिति का मुख्य उद्देश्य क्या है? (A) राजनीतिक सुधार (B) सांस्कृतिक संरक्षण (C) शिक्षा और रोजगार (D) सामाजिक न्याय (E) उपरोक्त सभी  3. राणा थारू युवा जागृति समिति के अध्यक्ष को कितने वर्षों के लिए चुना जाता है? (A) 1 वर्ष (B) 2 वर्ष (C) 3 वर्ष (D) 5 वर्ष 4. राणा थारू युवा जागृति समिति मुख्य रूप से किस आयु वर्ग के लोगों को प्रेरित करती है? (A) बच्चों (B) युवा (C) बुजुर्ग (D) महिलाओं 5. राणा थारू युवा जागृति समिति का मुख्यालय कहाँ स्थित है? (A) सितारगंज (B) खटीमा (C) देहरादून (D) लखनऊ 6. राणा थारू युवा जागृति समिति के अंतर्गत किस कार्यक्रम को प्रतिवर्ष आयोजित क...

राणा समाज को आप कितना जानते हैं?

राणा थारू समाज को आप कितना जानते है? ✍️ नवीन सिंह  यहां 50 प्रश्नों का एक बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र प्रस्तुत है, जो राणा समाज की उत्पत्ति, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक मुद्दों, शिक्षा, भूमि, और रोजगार जैसे विषयों पर आधारित है आप नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर कमेंट बॉक्स में जाकर सेंड कर सकते हैं। 1. राणा समाज की उत्पत्ति किस राज्य से मानी जाती है? a) उत्तराखंड b) उत्तर प्रदेश c) राजस्थान d) मध्य प्रदेश 2. राणा समाज का पारंपरिक मुख्य पेशा क्या है? a) कृषि b) व्यापार c) शिल्पकारी d) शिक्षा 3. राणा समाज के लोग प्राचीन काल में किससे जुड़े थे? a) वैदिक संस्कृति b) क्षत्रिय धर्म c) वैश्य समाज d) बौद्ध धर्म 4. राणा समाज में प्रमुख त्यौहार कौन सा है? a) होली b) दिवाली c) हरियाली तीज d) मकर संक्रांति 5. राणा समाज की प्रमुख भाषा कौन सी है? a) हिन्दी b) पंजाबी c) थारू d) कुमाऊँनी 6. वर्तमान में राणा समाज में शिक्षा का औसत स्तर क्या है? a) प्राथमिक b) माध्यमिक c) उच्च d) साक्षरता दर 60% 7. राणा समाज के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन क्या है? a) सरकारी नौकरी b) निजी व्यवसाय c) खेती d) शिल्पकार...

समाज के भीतर का शोषण और हमारी जिम्मेदारी✍️ राणा संस्कृति मंजूषा

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समाज के  भीतर का शोषण और हमारी जिम्मेदारी ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा  हम सब अपने समाज से प्यार करते हैं। हमारी संस्कृति, परंपराएं, और इतिहास हमें गर्व से भर देते हैं। यह समाज हमें वह पहचान देता है, जिसके बिना हम अधूरे हैं। हमारी जड़ें इस समाज में गहरी हैं—यह वह नींव है जिस पर हमारा वर्तमान और भविष्य टिका     है। समाज की महानता की बात करते हुए हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि इस शानदार भवन में कुछ ऐसे लोग भी बसे हुए हैं जो इसे अंदर से खोखला कर रहे हैं। वे ऐसे भेड़िए हैं, जो सिर्फ नाम के समाज के सदस्य हैं, लेकिन असल में समाज का शोषण कर रहे हैं और उसे बर्बाद कर रहे हैं। यह एक कड़वा सच है कि हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जो समाज की भलाई का नाम लेकर उसे ही लूटते हैं। ये वे लोग हैं, जिनकी निगाहें हमेशा दूसरों के संसाधनों पर रहती हैं। वे समाज की मदद करने के बहाने अपनी ही जेब भरते हैं। उनका उद्देश्य केवल अपना लाभ होता है, और इसके लिए वे समाज की जड़ों को कमजोर करते जाते हैं। ये समाज के भीतर छिपे दरिंदे हैं, जो आपके सामने मासूमियत का मुखौटा पहनकर आते हैं, लेकिन मौका मिलते ही...

अंतर्राष्ट्रीय राना थारू समाज मैत्रीपूर्ण सम्मेलन: सांस्कृतिक एकता और संगठनात्मक विस्तार पर जोर

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अंतर्राष्ट्रीय राना थारू समाज मैत्रीपूर्ण सम्मेलन: सांस्कृतिक एकता और संगठनात्मक विस्तार पर जोर ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा अंतर्राष्ट्रीय राना थारू समाज मैत्रीपूर्ण सम्मेलन 28 आश्विन 2081, सोमवार को लखीमपुर खीरी में भव्यता के साथ संपन्न हुआ। इस सम्मेलन का आयोजन थारू जनकल्याण संस्था लखीमपुर खीरी द्वारा किया गया, जिसमें देश-विदेश से अनेक प्रतिष्ठित अतिथि और विशेषज्ञ शामिल हुए। सम्मेलन की अध्यक्षता थारू जनकल्याण संस्था के अध्यक्ष छैलविहारी राना ने की, जबकि अंतर्राष्ट्रीय राना थारू समाज के अध्यक्ष डिल्लू राना और नेपाल से आए विशिष्ट अतिथि डॉ. जीवन राना ने भी इस आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. जीवन राना ने नेपाल और भारत में बसे राना थारू समुदाय की भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज, और खानपान की समानता पर बल देते हुए कहा कि दोनों देशों के थारू समुदाय को एकजुट होकर एक साझा मंच बनाना चाहिए, जिससे समुदाय के विकास और पहचान को बल मिल सके। नेपाल के सहसंयोजक पदम राना ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्था का पंजीकरण कराने के लिए लगभग 70 हजार अमेरिकी डॉलर की मौजनी (संपत्ति) दिखाने की आवश्यकता हो...

न्याय की पुकार

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div> न्याय की पुकार  ✍️ नवीन सिंह  होते न यदि जय चंद देश में,  तो देश न ऐसे लूटा जाता। होते न यदि समाज लुटेरे,  यह समाज अब तक संभल जाता।। अपने होकर अपनो को लूटे, कब तक लोग सहन  कर पाते। इनको लगते इतने जूते,  खुद वो उनको न गिन पाते।। मूंह लग गया, दूसरों की कमाई पर,  कैसे वे बिन, इसके रह पाते।  यह अच्छा काम नहीं है जग में, लोग भला इनको कैसे समझाते।। समझ न पाया मै इन दानव को,  जो मानव के अन्दर करे निवास। कर वे ईमानी अपने  भरते खजाने,  जिनके खातिर उड़ रहा परिहास।। अब  न सभलेंगे ये दुष्ट,  सत जन को कठोर कदम उठाना होगा।  उदंडता रोकने को इनकी , इनके सीने में तीर चलाना होगा।। जब तीर चले थे रामचंद्र जी के, तब ही था रावन गया मारा।  बन राम आज सभी को बेध तीर से, मिटेगा पाप आज, तभी इस धरा से सारा।।  सिर्फ दशहरा मनाने से,  जग से न भ्रष्ट व्यवहार खत्म होगा।  इनकी उदंडता मिटाने को,  इनके सीने में तीर चलाना होगा।

धर्मांतरण का दंश और सनातन की वापसी: अनघा जयगोपाल की प्रेरक यात्रा और राणा थारू समाज की चुनौती"**

**"धर्मांतरण का दंश और सनातन की वापसी: अनघा जयगोपाल की प्रेरक यात्रा और राणा थारू समाज की चुनौती"** ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा एक दिन अचानक मेरी नजर एक आत्मकथा रूपी कहानी पर पड़ी, जिसमे  अनघा जयगोपाल की कहानी एक दर्दनाक और प्रेरणादायक यात्रा के बारे में लिखा हुआ था, मन में जिज्ञासा उठी और उस कहानी को मैने पढ डाला। और उसको पढ़ने के बाद मैं जो समझ पाया है, उसको आपके सम्मुख रखने का प्रयास किया है जो न केवल धर्मांतरण की साजिशों का पर्दाफाश करती है, बल्कि सनातन धर्म के महत्व और उसकी गहन जड़ों को भी उजागर करती है। उनकी आत्मकथा को जब विस्तार से पढ़ा जाता है,  जो उनकी व्यक्तिगत पीड़ा नहीं, बल्कि कई अन्य लोगों की कहानियों का भी प्रतीक बन जाती है, जो धर्मांतरण के शिकार हुए हैं। **अध्याय 1: बचपन और धार्मिक अनुष्ठान** अनघा जयगोपाल का जन्म केरल के त्रिशूर में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनका परिवार परंपराओं और अनुष्ठानों का पालन करता था, लेकिन उन अनुष्ठानों की गहराई या उनके पीछे के अर्थों से अनभिज्ञ था। अनघा भी उसी वातावरण में पली-बढ़ी, जहाँ सनातन धर्म के कुछ प्रतीकात्मक अनुष्ठानों का प...

ग्रामीण और नौकरीपेशा व्यक्तियों के बीच मानसिकता का टकराव: एक विस्तृत विश्लेषण"**✍️ राणा संस्कृति मंजूषा

**"ग्रामीण और नौकरीपेशा व्यक्तियों के बीच मानसिकता का टकराव: एक विस्तृत विश्लेषण"** ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा (श्रीमान महावीर सिंह राणा जी द्वारा दिया गया व्यक्तव्य और उसका विश्लेषण ) महावीर जी द्वारा दिया गया व्यक्तव्य: ""आजकल हमारे यहां क्षेत्र में यह सोच फैली है कि नौकरी वाला व्यक्ति धरातल पर काम नहीं कर रहा है गांव के व्यक्ति को यही लगता है कि जो कर रहे हैं l हम ही कर रहे हैंl हमारे द्वारा ही पूरा गांव को देखा जा रहा हैं l इसीलिए गांव का व्यक्ति नौकरी चाकरी वाले व्यक्तियों को अधिक तवज्जो नहीं देता हैl और अन्य जाति के कोई नौकरी वाले व्यक्ति होते हैं उसे ही तवज्जो देते हैं अपने वालों को तो बिल्कुल शून्य समझते हैं l  थारू नौकरी वाला कोई भी कुछ भी बोलेगा तो उसे यही जवाब मिलेगा की आप अपनी नौकरी छोड़कर यहां आकर देखो तो पता चलेगा l ऐसे वाक्य मैंने आए दिन सुना है l  लेकिन उस व्यक्ति को यह नहीं मालूम है कि जो लोग नौकरी कर रहे हैं वह कितने लोगों को चला रहे हैं l और कितना संघर्ष किया है उन्होंने और वे जहां नौकरी कर रहे हैं वह क्षेत्र से कितने डेवलप वाले क्षेत्र में नौकरी कर ...