तराई की आत्मकथा और राणा थारू समाज



तराई की आत्मकथा और राणा थारू समाज 
✍️नवीन सिंह राणा 

मेरा नाम तराई है, और मैं उत्तराखंड के उस क्षेत्र की गाथा हूँ, जो कभी ऋषि-मुनियों की तपोस्थली हुआ करती थी। मेरे आंचल में सीता माता ने वनवास के दिन बिताए, और यहाँ ही महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। मैंने पांडवों का अज्ञातवास देखा, अर्जुन का पराक्रम भी यहीं का हिस्सा बना जब उसने कौरवों को पराजित कर विराट राजा की गायों को सुरक्षित लौटाया। मेरे घने जंगल और शांत धाराएँ हमेशा से ही वीरों और तपस्वियों का आश्रय स्थल रही हैं।

समय के साथ, मेरी भूमि विदर्भ के राजाओं के अधीन आई, जिनके पास अनगिनत पशुधन था। मैंने राजाओं के किले देखे और युद्धों की गूंज सुनी। कीचक का वध मेरे वन-क्षेत्र किच्छा के पास हुआ, और भीमसेन की वीरता का साक्षी मैं बना। फिर गुप्त काल आया और कत्यूरियों का शासन हुआ। उनके काल में मेरी समृद्धि चरम पर थी, लेकिन धीरे-धीरे उठा-पटक ने मुझे त्रस्त कर दिया। मुगलों के आक्रमणों ने मेरी शांति को तोड़ा, और मैं संघर्ष की भूमि बन गई।

जब मुगल आए, उन्होंने मेरे हिस्सों पर अधिकार जमाया। अकबर ने मुझे राजा रूद्र चंद को सौंपा, और इस चंदवंश ने मुझे संजोया। बाज बहादुर चंद ने मुझे बचाने के लिए मुगलों से संधि की। रुहेलों के आक्रमणों से मैं कांप उठी, लेकिन मेरे पहरेदारों ने मुझे पुनः मुक्त किया। शिवदेव जोशी ने मेरे लिए किले बनवाए, ताकि मैं सुरक्षित रह सकूं, लेकिन सत्ता संघर्ष ने फिर से मुझे कमजोर किया।

अंग्रेजों के आने के बाद, मेरी उपजाऊ धरती ने उन्हें आकर्षित किया। वे मेरी नदियों और जंगलों को देखकर व्यापार के अवसर तलाशने लगे। उन्होंने मेरे भीतर सिंचाई के साधन विकसित किए, सड़कों और नहरों का जाल बिछाया। लेकिन उनकी भूमि प्रथाओं ने यहां के वासियों को अत्यधिक प्रभावित किया चाहें जमीदारी प्रथा हो या अन्य , यहां के लोग प्रभावित हुए ही हुए।जंगलों में बसे शेर, तेंदुए और आदमखोर बाघों का शिकार हुआ, जंगलों से कीमती लकड़ी के बहुत अधिक कटान हुए, मेरी बेशकीमती लकड़ी अब लाभ का हिस्सा बनकर रह गई।  मेरे अरण्य प्रदेशों में जिम कॉर्बेट जैसे शिकारी आए। जिन्होंने अपने शिकारी अनुभवों से तराई की भूमि में जानवरो को लहूलुहान भी किया।परन्तु मेरी गहराइयों में छुपे डाकुओं की गाथाएं भी कम नहीं थीं। सुल्ताना डाकू, जो अमीरों को लूटता और गरीबों की मदद करता था, मेरी गोद में पनाह पाता था वह मेरे घने जंगलों और कंदराओं में शरण लेकर स्वयं को सुरक्षित महसूस करता था।

आजादी के बाद, मैंने बाहरी लोगों को अपनी भूमि पर बसते देखा, जिन्होंने मेरी दलदली जमीन को सोना उगलने लायक  तो बनाया लेकिन मेरी इस भूमि का दोहन भी बहुत अधिक हुआ मेरे हजारों एकड़ के जंगलों को काटकर उसे खेतों में तब्दील कर दिया गया। लेकिन मेरी कृषि प्रथाओं में बदलाव आया, और मैंने उन्नति के नए दौर में कदम रखा। लेकिन मैंने आतंकवाद और संघर्ष के भी काले बादल देखे। और धीरे धीरे सब कुछ मेरी स्मृतियों में ओझल हो गया।

मैंने राणा थारू और बोक्सा जनजातियों को अपने आंचल में पलते-बढ़ते देखा, मैने देखा कि वे किन परिस्थितियों में थार के राजपुताने अपनी प्रजा और भावी  पीढ़ी की आबरू की रक्षा के लिए मेरे तराई क्षेत्र में विस्थापित हुए , बारह राणा जहां आज बारह राणा स्मारक बना हुआ है मुझे याद है सबसे पहले यहीं आकर अपना पड़ाव डाला था औरयहीं से अपने कई गांवों को बसाकर मुझ तराई को आबाद किया ।समय की करवट ने उनको संघर्ष कराया और मज़बूत भी बनाया लेकिन कई बार वे शोषित भी होते रहे। और आजादी के बाद उनको सरकार ने जनजाति घोषित कर दिया उनके विकास के लिए कई योजनाएं चलाई ताकि वे समाज की मूल धारा में जुड़ सकें। वे मेरी मूल निवासी रहे हैं, उनके दर्द को, उनकी खुशी को, उनकी संस्कृति को, उनकी परम्पराओं को मैने महसूस किया है लेकिन बाहरी लोगों ने उनकी जमीनें हथिया लीं, उनके सैकड़ों गांव उजड़ हो गए जिसे मैने अपनी आंखों से देखा और उनके दर्द को महसूस किया, मैने उन बाहरी धर्म प्रचारकों को भी देखा जिन्होंने  इनकी परम्पराओं और रिवाजों को भेदने का प्रयास किया, लोभ और लालच में डालकर उनको दिग्भ्रमित किया लेकिन समाज ने कड़ी मशक्कतों से ख़ुद को बचाए रखने का प्रयास किया। लेकिन उनके बढ़े बढ़े खेत बाहरी लोगों की चालाकी के भेंट चढ़ गए, उन्हें हर तरह से लूट खसोट कर बार बार विस्थापित होने को मजबूर होना पड़ा फिर भी यह राणा समाज ख़ुद को आगे की ओर अग्रसरित करते रहा।। मेरे जंगलों में बसे गूजरों ने अपने जानवरों के साथ चारागाहों में जीवन बिताया, लेकिन उनका संघर्ष भी समय के साथ बढ़ता चला गया। आज तराई आबाद है, जिसमे आजादी के बाद बाहर से लोगों को लाकर बसाया गया, कभी स्वतंत्रता सेनानी लोगों को, कभी पंजाब के लोगों को, कभी पश्चिम बंगाल के लोगों। और फिर धीरे धीरे दूसरे लोग भी इस तराई में आकर बसने लगे, इनकी जमीन अब बिकाऊ चीज बन चुकी थी जिसमे सभी की नजर थी। कभी इन राणा थारू तराई के असली वाशिंदों के पास हजारों हेक्टेयर भूमि इनके नाम थी समय की करवट ने आज इनकी खेतिहर भूमि को बहुत अधिक सीमित कर दिया है। और दिनों दिन इसका रकवा कम होता ही जा रहा है इसका मुझे दुःख है।

मैं तराई हूँ और मुझे अपने अतीत पर गर्व रहा है, उत्तराखंड की वह भूमि, जिसने कई साम्राज्यों को उगते और ढलते देखा है। मैंने वीरता के किस्से सुने हैं, पराक्रम के गाथाएं जानी हैं, और मैंने देखा है कि कैसे समय के साथ मेरा स्वरूप बदला, पर मेरी आत्मा सदैव अडिग रही। मैं अपनी नदियों, जंगलों, पहाड़ियों और लोगों की गाथा हूँ, जो मुझे जीवित रखती है।
साभार 
< उत्तराखंड का इतिहास 
< विकिपीडिया 



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