होरी में छिपी है हमारी परम्परा



होली में छिपी है हमारी परंपरा

सामान्य परिचय 

  होली जिसे राणा थारू समाज में होरी या हुडका माता कहकर संबोधित किया जाता है ,इस होरी त्यौहार का राणा थारू समाज में एक अलग ही महत्व है । वैसे तो यह त्यौहार सम्पूर्ण भारत में सभी धर्मो के लोग अपने अपने तरीके से मनाते हैं लेकिन जिस तरह से हमारे राणा थारू समाज के लोग पहले से मनाते आये हैं वाकई में एक अलग परंपरा को प्रदर्शित करता है।

होली की पारंपरिक वेशभूषा 
  पारंपरिक वेशभूषा में राणा थारू समाज की होली खेलती हुई महिलाएं
होली के सम्बंध में मान्यताएं 
होली का त्यौहार हमारे राणा थारू समाज में दो तरह से मनाया जाता है, पहला होलिका दहन से पहले, जिसे सभी लोग जिंदा होली के नाम से जानते है। और दूसरा प्रकार होलिका दहन के बाद जिसे मरी होली के नाम से जाना जाता है। राणा थारू समाज के कुल सभी गांवों में से कुछ गांवों में जिंदा होली और कुछ गांवों में मरी होली बहुत ही पुराने समय से मनाते हुए आ रहे हैं।  जिसको मनाने की अलग अलग मान्यताएं हैं,

होली मनाने का तरीका या ढंग 
    होरी का त्यौहार मनाने हेतु सर्व प्रथम होरी रखने की परम्परा अतीत काल से राणा थारू समाज में चली आ रही है, जिसमे गांव के सभी परिवार से लोग गांव की भूम सेन अर्थात भुइंया परिसर में होरी रखते हैं। जिसमे वे सभी लोग गोबर से बने कंडे जिनकी संख्या 5 या 7 होती है ।प्रत्येक सद्स्य प्रति परिवार से ले जाकर वहां रखता है जिससे एक बड़ा ढेर सा बन जाता है जिसे होली रखना कह कर संबोधित करते हैं। उसके बाद गांव के परिवारों की संख्या के अनुसार होरी खेलना आरंभ करते हैं। होरी खेलने के अलग अलग तरीके हैं जैसे पुरुषों की होरी, जिसमे सिर्फ पुरुष दो टोलियों में होली गीत गाते हैं और बीच में ढोल बजाते हैं। महिलाओं द्वारा होरी, जिसमे सिर्फ महिलाएं ही दो समूह में मिलकर होली गीत गाते हुए खेलती है। 

और मिक्स होली जिसे खिचड़ी होली कहते हैं जिसका चलन काफी अधिक रहा है और इसे काफी अधिक पसंद भी किया जाता है। खिचरैया होली में पुरुष व महिलाएं मिलकर होली नृत्य करते हैं। होली खेलते समय गाए जाने वाले गीत प्राचीन ग्रंथों से लिए गए दास्तान वा कहानियों से बनाए गए होते थे, बारहमासी होती थी, लेकिन अब गीतों का स्वरूप धीरे धीरे बदल रहा है जिसमे फिल्मी गानों की तर्ज पर भी होली गीत और नृत्य किए जाते हैं। होली परिधान में पारंपरिक बेस भूषा अंगिया ,घाघरा, चोली, अरघना, आदि पहने जाते रहे हैं जिनमे अब कुछ बदलाव सा प्रतीत हो रहा है।

 जब होली पूरे गांव में घर घर जाकर खेली जाती है तब जिस घर में होली नृत्य किया जाता है उस परिवार या घर से होली खेलने वाले होलियारों और होली देखने वाले गांव के लोगो को भेंट स्वरूप गुड़ या बताशा खिलाकर मुंह मीठा किया जाता है और आदर सम्मान किया जाता है l कुछ लोग अपनी छमता अनुसार राशि भी भेंट करते हैं। जब होली पूरे गांव में खेल ली जाती है तो खुशी से बहुत से लोग दूसरे गांव की होली टीम को भी आमन्त्रित करते हैं जिससे होली में और रोनाक आ जाती है। 
       होली के अंतिम दिन जब पूरे गांव के घर घर में होली खेल ली जाती है तब होली दहन किया जाता है जिसमें गांव के हर परिवार से लोग कंडे लेकर होली दहन स्थल पर पहुंचते हैं ।इसके लिए गांव का पधान कुटवार या अन्य के माध्यम से पूरे गांव में होली दहन की घोषणा करवाता है। 
जब पूरे गांव के लोग होलिका दहन स्थल पर एकत्रित हो जाते हैं तब पधान उस स्थल की पूजा अर्चना करते हुए पूरे गांव के लिए सुख समृद्धि , खुशहाली व निरोगता की मन्नत मांगते हुए लोंग, गुड़, चावल होलिका देवी को अर्पित करता है और सभी गांव बासी जनों को गुड़ खिलाकर मुंह मीठा करा कर होली दहन करता है , गांव के सभी लोग भी होलिका देवी से अपने परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं और अंत में अपने घर उस होलिका दहन कुंड से एक एक सुलगा हुआ कंडा लेकर आते हैं माना जाता है कि यह शुद्ध और कोरी अग्नि होती है जिससे घर में आग जलाई जाती है। पुराने समय में लोग हमेशा इसी कोरी आग ही उपयोग करते थे लेकिन समय के बदलाव के साथ यह परम्परा भी बदल गई। जब होली दहन कर घर के लोग घर पहुंचते हैं तब घर की महिलाएं खकडेरा बनाती हैं जिसमें वे लोंग, बढ़नि, चावल, मिट्टी की कुछ आकृति खपरैल से बने आधार पर रख कर तैयार करती हैं।सुबह तड़के पधान द्वारा खकड़ेरा फोड़ने का चिल्लारा या बुलावा कराया जाता है सभी लोग जल्दी उठकर ख्कड़ेरा फोड़ने के लिए अपनी गांव की सरहद पर पहुंचते हैं और फिर वहीं ख्कदेरा फोड़ा जाता है पहले इससे जुड़ी कई और परंपराएं हुआ करती थीं लेकिन समय के साथ इनमें कुछ बदलाव देखने को मिलता है।
   खकड़े रा फोड़ने के बाद सभी होलिका दहन स्थल पर जाते हैं और होलिका दहन के उपरांत बची हुई कंडे की राख को भूम सेन के देवी देवताओं पर अर्पित करते हैं जिसकी अपनी कुछ मान्यताएं होंगी। उसके बाद वे कुछ राख अपने घर पर लाते हैं और घर के इष्ट देवता को अर्पित करते हैं व तिलक लगाते हैं। उसके बाद रंगो के साथ होली की जाती है लोग घर घर जाकर आपस में रंग लगाते हैं और गले मिलते हैं इसमें कुछ अपवाद स्वरूप होली के स्वरूप को बिगाड़ने का प्रयत्न करते हैं। लोग अपने सगे संबंधियों और दिलवरों दोस्तों को अपने घर पर भोजन पर आमन्त्रित भी करते हैं। यह बहू बेटियों का भी त्यौहार है इसलिए हर घर की बेटी अपने मायके होली मनाने आती है । शाम को पधान के घर होली का जश्न मनाया जाता है गांव के सभी बालक, बुजुर्ग,युवा, व महिलाएं इस कार्यक्रम का हिस्सा बनते हैं और अंत में हंसी खुशी के साथ होली की बिदाई कर दी जाती है इसे ही जिंदा होली के नाम से संबोधित किया जाता है। और इसके बाद जो होली खेली जाती है वह मरी होली के नाम से संबोधित की जाती है, यह लगभग एक सप्ताह तक उसी तरीके से घर घर जाकर खेली जाती है और जब पूरे गांव में खेल ली जाती है तब वे भी होली की बिदाई कर देते हैं।
इस प्रकार यह परम्परा प्राचीन समय से राणा थारू समाज में चली आ रही है।

आशा है आप सभी को राणा थारू समाज में खेली जाने वाली होली सम्बन्धी जानकारी पसंद आयेगी, इस जानकारी को लिखते समय काफी चीजे छूट भी गई होंगी जिन्हें लिखा जाना चाहिए था ताकि राणा थारू समाज की परम्परा को बेहतर तरीके से प्रदर्शित किया जा सके। कमेंट बॉक्स में जाकर आप उन बिंदुओं से अवगत करा सकते हैं साथ ही इस लेख को और बेहतर बनाने हेतु सुझाव दे सकते हैं। धन्यवाद
🙏🙏
नवीन सिंह राणा 

 




टिप्पणियाँ

Surjit Singh Rana Nausar Khatima , UDHAM SINGH NAGAR UTTARAKHAND ने कहा…
होलिका मैया का हमारे समाज में मनाए जाने का बहुत ही सुंदर तरीके से आपके द्वारा लिपिबद्ध किया है आपका बहुत-बहुत आभार जय होलिका मैया की जय राणा समाज की

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