राणा थारू समाज: तराई की धरोहर और विलुप्त होती संस्कृति

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राणा थारू समाज: तराई की धरोहर और विलुप्त होती संस्कृति
🖋️ नवीन सिंह राणा 

तराई की मनोहारी भूमि, जो अपनी हरी-भरी वादियों, बहती नदियों, और शांति से लबालब जंगलों के लिए जानी जाती है, राणा थारू समाज का वह प्राचीन आवास है जिसने न केवल इस भूमि को आबाद किया, बल्कि इसे अपनी समृद्ध संस्कृति और विरासत से अलंकृत भी किया। सदियों से यह समाज अपने मेले, त्यौहार, और परंपराओं के माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में ऊंचाई पर रहा। परंतु आज, समय की तेज रफ्तार और संरक्षण के अभाव ने इन धरोहरों को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है।
तराई के मेलों का गौरवशाली इतिहास

राणा थारू समाज के इतिहास में मेलों और हाट बाजारों की अद्वितीय भूमिका रही है। ये केवल व्यापार या मनोरंजन के अवसर नहीं थे, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सामुदायिक एकता, और परंपराओं के प्रचार-प्रसार के जीवंत मंच थे। उलदन गांव का मेला, देवकला गांव का मेला, चकपुर गांव का मेला, और कैलाश नदी का मेला जैसी परंपराएं समाज के जीवन का हिस्सा थीं।

इन मेलों में से, कैलाश का मेला, जिसे स्थानीय लोग चीका घाट का मेला भी कहते हैं, खास महत्व रखता है। यह मेला कैलाश नदी के तट पर लगता था और यह न केवल सांस्कृतिक बल्कि आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। इस मेले की शुरुआत के पीछे एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी।

कैलाश मेले का इतिहास: राणा समाज की अस्मिता का प्रतीक

सिसईखेड़ा गांव के एक बुजुर्ग के अनुसार, कैलाश मेले की नींव राणा थारू समाज के एक सम्मानित प्रधान द्वारा रखी गई थी। उनके पास आसपास की भूमि थी, और उनके दूरदर्शी विचारों ने उन्हें अपने खेत में इस मेले का आयोजन करने के लिए प्रेरित किया। यह मेला केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि यह समाज के लोगों के लिए एकजुटता, व्यापार, और परंपरा का प्रतीक था।

उनके स्वर्गवास के बाद, उनकी पुत्री ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया, लेकिन दुर्भाग्यवश अगली पीढ़ियां इस धरोहर को संभालने में असमर्थ रहीं। धीरे-धीरे, बाहरी समाज के लोगों ने न केवल इस मेले पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया, बल्कि वह भूमि भी हाथ से निकल गई, जो कभी राणा समाज की पहचान थी।

विरासत के खोने का दर्द

आज, कैलाश का मेला राणा समाज की परंपरा से अधिक बाहरी समाज की गतिविधियों का हिस्सा बन गया है। इस परिवर्तन ने समाज को एक गहरी चोट दी है। यह केवल एक मेले की बात नहीं है; यह उस संस्कृति और पहचान की बात है जिसे राणा समाज ने सदियों तक संजो कर रखा था।

तराई की अन्य कई धरोहरें, जैसे उलदन और झनकइया के मेले, भी इसी किस्मत का शिकार हो चुकी हैं। ये वो स्थान थे जहां हमारी संस्कृति जीवित रहती थी, और लोग गर्व से अपनी परंपराओं का पालन करते थे। लेकिन संरक्षण के अभाव, बाहरी प्रभावों, और अगली पीढ़ियों की उदासीनता ने इन धरोहरों को अतीत का हिस्सा बना दिया।

भविष्य की चुनौतियां और समाधान

यदि राणा थारू समाज अपनी विरासत को बचाने के लिए एकजुट नहीं हुआ, तो वह दिन दूर नहीं जब यह समाज अपनी ही भूमि पर पराया महसूस करेगा। अब समय आ गया है कि हम अपने समाज की ऐतिहासिक धरोहरों को पुनर्जीवित करने के लिए कदम उठाएं।

संरक्षण और शोध: स्थानीय मेलों, हाटों, और सांस्कृतिक परंपराओं का दस्तावेजीकरण और संरक्षण अत्यंत आवश्यक है।

युवा पीढ़ी की भागीदारी: समाज के युवाओं को इस सांस्कृतिक संरक्षण में शामिल करना होगा।

सामुदायिक एकता: समाज के सभी वर्गों को एक साथ आकर अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को पुनः स्थापित करना होगा।


प्रकृति की गोद में हमारी पहचान

तराई की हरियाली, बहती नदियां, और शांत वातावरण राणा थारू समाज की पहचान हैं। इन प्राकृतिक सौंदर्यों में छुपी है वह कहानी जो हमें हमारी संस्कृति और परंपरा से जोड़ती है। इन धरोहरों का संरक्षण केवल समाज की पहचान को बचाने का कार्य नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ने और भविष्य की पीढ़ियों को उनका इतिहास सिखाने का एक माध्यम है।

आओ, मिलकर अपनी धरोहरों को फिर से जीवित करें, ताकि आने वाले कल में हमारी पहचान सुरक्षित रह सके।


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