होरी का महत्त्व: परंपरा, इतिहास और विज्ञान✍️ नवीन सिंह

होरी का महत्त्व: परंपरा, इतिहास और विज्ञान
✍️ नवीन सिंह 

होली या होरी केवल एक त्योहार नहीं है; यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। यह रंगों का उत्सव जहाँ धार्मिक और सामाजिक तात्पर्य से जुड़ा है, वहीं यह प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने और परंपरागत पूजा पद्धतियों से भी गहराई से संबंधित है। हमारे समाज में 'मरी होरी' और 'जिंदी होरी' जैसे प्रथाओं का अनोखा सांस्कृतिक महत्व है, जो आज भी कई सवालों को जन्म देता है।

राजवीर सिंह राणा और पुष्पा राणा द्वारा साझा किए गए विचार हमें होली के पारंपरिक और वैज्ञानिक पहलुओं से जोड़ते हैं। इस लेख में, हम इन दोनों वक्ताओं के विचारों को विस्तार से समझेंगे और होरी की परंपरा, पूजा पद्धति, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को एक नई रोशनी में देखेंगे।

होरी: परंपरा और पूजा

होरी, जैसा कि राजवीर सिंह राणा ने विस्तार से वर्णित किया, हमारी प्राचीन परंपरा का हिस्सा है। 'होली' शब्द से बदलकर 'होरी' का उपयोग और 'हुरक माता' की पूजा इस बात का प्रमाण है कि यह त्योहार हमारे समाज में केवल उत्सव से अधिक रहा है। यह हमारी फसलों के पकने और ग्रामीण जीवन में खुशहाली के आगमन का प्रतीक है।

राजवीर जी के अनुसार, हमारे समाज में जब गेहूं की बालियां पकने लगती थीं, तब गांव के लोग पहले अपनी फसल का एक हिस्सा देवी-देवताओं को अर्पित करते थे। यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था क्योंकि हवन द्वारा पूरे वातावरण को शुद्ध किया जाता था। इस प्रक्रिया में, हवन सामग्री के रूप में गांव के हर घर से कांडे और अक्षत (चावल) लाए जाते थे, जो कि एक प्रकार से सबकी सहभागिता को दर्शाता है।

हुरक माता की पूजा में प्रमुखता से 'होरा' का महत्व होता था। होरा फसल का वह हिस्सा था जो अर्पित किया जाता था, और फिर उस प्रसाद को अग्नि में समर्पित कर गांववालों द्वारा घर लाया जाता था। यह प्रसाद न केवल देवी को अर्पित किया जाता था बल्कि इसे एक शुद्धिकरण की प्रक्रिया माना जाता था, जिसमें राख से तिलक करना और उसे घर लाना विशेष रूप से शुभ माना जाता था।

मरी होरी: राख का महत्व

पुष्पा राणा ने अपने वक्तव्य में ‘मरी होरी’ की परंपरा को स्पष्ट करते हुए बताया कि होली के बाद मनाया जाने वाला 'होलाष्टक' हमारी सांस्कृतिक धरोहर का ही हिस्सा है। ‘मरी होरी’ का अर्थ है होली के बाद 8 दिन तक राख से खेली जाने वाली होरी, जिसे ‘धूल झराई’ भी कहा जाता है। धूल यानि हवन की राख का शरीर पर लगाना एक पवित्र कार्य माना जाता था, और इससे संबंधित कई वैज्ञानिक तर्क भी हैं।

राजवीर जी ने बताया कि यह राख न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से पवित्र होती थी बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक होती थी। यह बात वैज्ञानिक रूप से भी तर्कसंगत है क्योंकि अग्नि और राख वातावरण को शुद्ध करने के लिए प्रभावी होती हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने इन प्रक्रियाओं को इस प्रकार से धर्म से जोड़ा कि आम जनता इनका अनुसरण कर सके।

धूल झराई की परंपरा में हवन की राख से तिलक करना और उसे 8 दिन तक शरीर पर लगाना यह दिखाता है कि राख केवल एक प्रतीकात्मक वस्तु नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और शुद्धता का प्रतीक थी। धूल झराई का यह आयोजन सिर्फ शारीरिक शुद्धता के लिए ही नहीं, बल्कि सामूहिक एकता और खुशी का भी प्रतीक था।

होली और प्रकृति का संतुलन

पुष्पा राणा ने अपने वक्तव्य में होली को प्रकृति के साथ जोड़ते हुए इसे एक अद्वितीय संधिकाल बताया है, जब शीतकाल समाप्त होता है और ग्रीष्मकाल का आगमन होता है। यह वह समय होता है जब वातावरण में रोगाणु तेजी से पनपते हैं, और इस समय हवन और होरा (नवान्न) का उपयोग वातावरण को शुद्ध करने के लिए किया जाता है। यह परंपरा इस बात की गवाह है कि हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का सहारा लिया था।

बसंतोत्सव के रूप में होली को मनाने की प्रथा इसलिए शुरू हुई क्योंकि यह समय होता है जब प्रकृति नई ऊर्जा से भर जाती है। पुष्पा जी ने बताया कि यह उत्सव नवयौवन और जीवन की नई शुरुआत का प्रतीक है। नाच-गाना, फाग गायन, और समूह में हंसी-मजाक करना यह सब जीवन की नई शुरुआत और उत्साह को दर्शाता है। यही कारण है कि होली में चुहलबाजी और मजाक को भी मान्यता दी गई है।

रंगों का वैज्ञानिक महत्व

पुष्पा राणा ने हमारे समाज में प्रयोग किए जाने वाले रंगों के महत्व पर प्रकाश डाला। हमारे समाज में टेसू के फूलों से बने प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता था, जो न केवल खुशी का प्रतीक थे बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक माने जाते थे। आयुर्वेद में टेसू के फूलों को ज्वरनाशक माना गया है।

पुष्पा जी ने बताया कि पहले हमारे समाज में रंगों का प्रयोग केवल शुद्ध टेसू के फूलों से किया जाता था, जो स्वास्थ्यवर्धक होते थे। यह रंग न केवल आनंद का प्रतीक थे, बल्कि शरीर के लिए भी उपयोगी माने जाते थे। आज के रासायनिक रंगों से हटकर, यह प्राकृतिक रंग हमारे समाज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।

निष्कर्ष:

होरी केवल एक धार्मिक या सांस्कृतिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की ज्ञान परंपरा का प्रतीक है। यह त्योहार जहां एक ओर धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ा है, वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिक तर्कों और प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने का तरीका भी है। राजवीर सिंह राणा और पुष्पा राणा के विचारों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि होरी की परंपरा न केवल धार्मिक है, बल्कि हमारे जीवन, स्वास्थ्य, और प्रकृति से गहराई से जुड़ी हुई है।

आज के आधुनिक परिवेश में, जब हम होली को केवल रंगों का त्योहार मानते हैं, तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम इसके पारंपरिक और वैज्ञानिक महत्व को भी समझें और उस ज्ञान को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाएं।

होली एकता, खुशहाली, और प्राकृतिक संतुलन का प्रतीक है। इस त्योहार को मनाते समय हमें अपने पूर्वजों की उस ज्ञान परंपरा को याद रखना चाहिए जिसने हमें न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समृद्ध किया है।


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