थरुहट की आत्मकथा - आत्म संघर्ष और अस्तित्व की कहानी✍️ नवीन सिंह राणा
थरुहट की आत्मकथा - आत्म संघर्ष और अस्तित्व की कहानी
✍️ नवीन सिंह राणा
तराई की उर्वर भूमि में बसा हुआ मैं, थरुहट। आज मुझे लोग ‘थरुआट’ के नाम से जानते हैं, पर मेरी कहानी सदियों पुरानी है। इस भूमि पर राणा राजपूतों ने अपने कदम उस समय रखे, जब उनकी प्यारी वसुंधरा ‘थार’ संकटों के घेरे में थी। मुझे अब भी याद है वे कठिन समय, जब ये लोग अपनी धरा, अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति को छोड़कर यहां, मेरे पास आ बसे थे। वह एक असहनीय पीड़ा का समय था, जब इन्हें अपने अस्तित्व और अपनी संस्कृति के सरंक्षण के लिए अपने घरों को त्यागना पड़ा था। उनके चेहरों पर छाई चिंता, दिलों में धड़कता डर, पर साथ ही, इरादों में एक अटूट संकल्प – मुझे सब कुछ अब भी याद है।
जब वे पहली बार आए तो सबसे पहले मेरे एक कोने में, जिसे आज मीरा बारह राणा के नाम से जाना जाता है, पड़ाव डाला। बारह राणा राजपूतों का एक जत्था था, और उनके साथ उनकी प्रजा भी थी। इन राजपूतों ने एक अनकही जिम्मेदारी का बोझ उठाया था – अपने लोगों की सुरक्षा और अपनी विरासत का संजोना। जंगल, दलदल, और बीमारी से घिरी तराई की भूमि में वे घबरा सकते थे, पर उनके इरादों में दृढ़ता थी। एक-एक कर उन्होंने गांवों की स्थापना की, जिनका नाम उन्हीं वीर राजपूत राजाओं के नाम पर रखा गया। हर गांव में उनके लिए एक नया संघर्ष था, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
तराई की भूमि, जो कभी दलदली और विषम परिस्थितियों वाली थी, वहां मुझे आबाद करना एक कठिन कार्य था। दलदल के उन जंगलों में मच्छरों की भरमार थी, जो अपने साथ घातक बीमारियां लेकर आते थे। वे मच्छर, जिनके काटने से न जाने कितने राजपूत बीमार हुए, कितनों ने अपनी जान गंवाई। पर उन्होंने हार नहीं मानी, एक के बाद एक गांव बसाते गए।
जंगलों को काटकर खेत तैयार करना, घर बनाना – यह सब कुछ करने में उनकी मेहनत साफ झलकती थी। हर कदम पर उनका संघर्ष था, उनकी आशा और विश्वास था। मुझे आज भी याद है कैसे जंगली जानवरों से खुद की और अपने परिवार की रक्षा करना, अपने बच्चों को सुरक्षित रखना – ये सब उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था। सूखे और बाढ़ ने भी कई बार उनके भोजन की कमी का संकट खड़ा किया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। मछलियों का शिकार करना, जंगलों से जड़ी-बूटियों का उपयोग करना, जंगली पशुओं का शिकार करना – हर संभव उपाय से उन्होंने अपनी जीवन रक्षा की। यह सब मेरी आंखों के सामने घटित हुआ।
वह दौर कितना दुखमय था, कितने कष्टकारी था। मगर उन्होंने अपने हाथों से बंजर भूमि को हरियाली में बदल दिया। खेतों में फसलें उगाईं, घरों को बनाया, अपने गांवों को बसाया। इन गांवों में उन्होंने अपने रीति-रिवाजों को, अपने संस्कारों को, अपनी भाषा को जीवित रखा। धीरे-धीरे, मेहनत से, प्यार से, सहनशीलता से मुझे आबाद कर दिया। और आज मैं, थरुहट, उनकी पहचान बन गया हूँ।
पर यह कहानी यहां खत्म नहीं होती। यह सफर आगे भी चलता रहेगा। आज भी मेरी भूमि पर वे अपने पसीने की बूंदें बहा रहे हैं। नए संघर्ष, नए बदलाव सामने आ रहे हैं, लेकिन उनकी दृढ़ता वही है। आने वाले खंडों में मैं आपको और भी कहानियाँ सुनाऊंगा – उन संघर्षों की, उन विजयों की, जिन्होंने मुझे और मेरे लोगों को संजोए रखा।
आगे जारी है...........
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