असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।।श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा लिखित
असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।।
श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा लिखित
Published by Naveen Singh Rana
सभी भाई,बंधू एवं मित्रगणों को ज्योति पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
यह देखा जा सकता है कि आज-कल कोई भी तीज त्यौहार, समुदाय विशेष, धर्म विशेष अथवा क्षेत्र विशेष की मान्यताओं के आधार पर नहीं मनाये जाते। हर व्यक्ति, हर क्षेत्र तथा हर समुदाय तक सोशल मीडिया की पहुंच हो जाने के कारण सभी पर्व मीडिया में दिखाये जा रहे तौर तरीकों की नकल करते हुए मनाये जाते हैं जो अक्सर मनोरंजक,लोक लुभावन और व्यवसायिक उद्देश्यों को ध्यान में रख कर दिखाये जाते हैं ।स्वयं को आधुनिक तथा ग्लैमरस दिखाने एवं रील बनाने के चक्कर में लोग इन सबका अंधानुकरण भी करते हैं।
परन्तु आज हम चर्चा करेंगे राणा समाज द्वारा मनाये जाने बाले त्योहार "दिवारी" की , जिसको तथाकथित बुद्धिजीवियों तथा लेखकों द्वारा रहस्यमय बना दिया गया है। हम अक्सर "ल" की जगह "र" अक्षर का उच्चारण करते हैं। अतः दिवाली से दिवारी शब्द प्रचलन में आ गया।लोगों ने लिखा है कि राणा लोग (थारु जनजाति) दीपावली का त्योहार शोक पर्व के रूप में मनाते है और ये लोग इस दिन अपने मृत सम्बंधियों की याद में रोते चिल्लाते हैं। हद तो तब हो गयी साथियों! और आश्चर्य तो तब होता है जब प्रतियोगी परीक्षा में भी यह प्रश्न पूछा जाता है कि कौन सी जनजाति दीपावली पर्व को शोक पर्व के रूप में मनाती है और सही जबाब होता है थारू जनजाति।यह उनके दिमाक के खोखलेपन को प्रदर्शित करता है जो आधी अधूरी जानकारी के आधार पर किसी समुदाय के बारे में अधिकारिक रुप से ऐसी अवधारणा यह दर्शाने और सिद्ध करने के लिये करते हैं कि यह समुदाय कितना अज्ञानी, आदिम और पिछड़ा हुआ है।इन सबके पांडित्य और खोज पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है।
यह बात सही है कि हम राणा समाज के लोगों के द्वारा एक वर्ष के भीतर अपने स्वर्ग सिधारे सगे संबंधियों के लिये सामाजिक रुप से बड़े भोज (बड़ी रोटी यानी दिवारी)का आयोजन कार्तिक अमावस्या के दिन दीपावली के अवसर पर किया जाता है जिसे हिन्दू धर्म के द्वारा सबसे बड़ी अमावस्या के रूप में मान्यता प्राप्त है। दिवाली के दिन आयोजन होने के कारण ही इस बड़ी रोटी (मृतक महाभोज) को दिवारी नाम मिला। राणा लोग अमावस्या को संक्षिप्त में इसको अमस्या या मस्या भी उच्चारित करते हैं। परन्तु अमावस्या को राणाओं के बड़े बुजुर्ग लोग बूड़ा परेवा जैसा विशिष्ट शब्द बोलते हैं जिसका अर्थ है बूड़ा यानी पूर्णतया डूब चुका चन्द्रमा, परेवा मतलव पर्व। कहते हैं अंधेरे में नकारात्मक शक्तियां अथवा पराजगत की शक्तियां विचरण करती हैं और इस अंधकार पर विजय पाने के लिए मां भगवती को भी काली का रौद्र रुप धारण करना पड़ा था।इस नकारात्मक एवं हानिकारक वातावरण के कारण ही बचपन से ही अंधकार से डरकर दूर रहने या उसे दूर करना सिखाया जाता है।कोई भी शुभ कार्य हमारे राणा समाज में वूड़ा परेवा में करना वर्जित था।
अपने कुटुंबियों के द्वारा मृतक को बड़ी रोटी के नाम से दिया गया यह अन्तिम भोज माना जाता है और इस शुभ तिथि में दिये गये भोज के बाद बरसी इत्यादि का प्रश्न ही नहीं उठता।इसी के साथ मृतक का कुश घास से बना भौतिक विग्रह (झूका) प्रवाहित कर दिया जाता है। सनद रहे कि लव के लापता होने की आशंका पर महर्षि वाल्मीकि द्वारा लव के प्रतिरुप कुश का विग्रह बनाया गया था और उसे जीवित व्यक्ति की भांति चैतन्य कर दिया था। क्योंकि हम सूर्यवंशी भगवान राम के ही वंशज हैं इसलिए हम भी उसी मान्यता का अनुसरण करते हुए मृतक के प्रतिरुप मे कुश घास का पुतला (झूका)बनाकर तथा उसे चैतन्य मानकर सारे क्रियाकलाप सम्पन्न करते है।इस आयोजन के बाद परिवारीजन अपनी सामर्थ्य के अनुसार गया नामक तीर्थ या हरिद्वार में मृतक की अस्थि विसर्जन तथा पिंड दान के लिए जाते थे ।
विचारणीय विषय यह है कि यदि व्यक्ति अपने प्रिय जन को अंतिम विदाई देगा तो शोक और रुदन तो स्वाभाविक ही है। यूं भी वर्ष भर में कई व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती हैं ।सगे सम्बन्धी,गांव घरों के लोग उस अन्तिम विदाई -आयोजन में आज भी आवश्यक रुप से शामिल होते हैं।छोटा सामाजिक दायरा होने के कारण तथा इसमें से कोई न कोई , किसी न किसी का सम्बन्धी होने के कारण इस मृतक भोज में शामिल होता ही था।अतः ऐसा लगता था कि समुदाय के सभी लोग शोक मना रहे हैं और राणा समाज में दीवाली एक शोक पर्व के रुप में मनाया जाने वाला त्योहार है।
वस्तुत: शोक उन्हीं घरों में मनाया जाता था जिनके यहां वर्ष भर के अन्दर किसी परिवारी जन की मृत्यु हुई हो। बाकी लोग जमदिया (यम के लिए दीप दान-यानी यम दिया) प्रज्वलित करके खुशियां मनाते थे। यदि हिन्दू धर्म में मृत्यु के देवता यमराज को दीवाली पर प्रसन्न किया जाता है और पितरों के कष्ट भरे (अंधकार मय सफ़र को आलोकित करने के लिए नरक चौदस (छोटी दिवाली) वाले दिन चौमुखा दीपक जलाकर ये कामन की जाती है कि उनके आगे की यात्रा चौमुखी आलोकित होती हुई सुगम हो जाये। क्या तथाकथित सभ्य समाज द्वारा दिवाली का आशय यही नहीं है। यदि हां,तो राणा समाज द्वारा मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए आयोजन करना आदिम कैसे हुआ (जिसको तथाकथित आदिम जनजाति मनाती है।)
ज्ञात रहे कि राणा समाज में दीवाली पर्व से कम से एक सप्ताह पहले ही आंगन की लिसाई पुताई(प्लासटरिंग )की जाती थी। मिट्टी के घर में चौका लगाया जाता था (मिट्टी से पुताई कर दी जाती थी)। छोटी दीपावली वाले दिन गोबर से आंगन लीपा पोता जाता था जो शुद्ध और स्वर्णिम चमक लिये होता था। घर के कच्चे लिसे हुए कमरों को तालाब की निहायत ही चिकनी मिट्टी से चौका लगाया (पुताई) जाता था। दीवारों पर मां लक्ष्मी, नरसिंह भगवान तथा अन्य देवी देवताओं की तस्वीरें टांगकर सजाया जाता था।रात को देवताओं को प्रसाद अर्पण कर आस पड़ोस और कुरमा टब्बर (कुनवा) में वितरित किया जाता था। बच्चे अपनी ह्यारी(विद्या) रतजगा( रात्रि जागरण) करके जागृत करते थे।मां तथा दादी अमृत वेला में उठकर छोटा डंडा लेकर घर की हर वस्तु विशेष रुप से अन्न भंडारण (कुठिया) में ठोंकती कि जाग्रत होवौ,बरकत दियो, भरे-पूरे रहियो।इसी तरह दीपावली की शाम को मां या दादी बारी- विरवा (किचन गार्डन) में दिया जला कर हाथ जोड़ कर आंचल की धोक लगाकर कहती खूब फरियो -फूलियो (फलों फूलो)।
प्रश्न ये उठता है कि हम हिन्दू रीति रिवाज के अनुसार मृतक के अन्तिम संस्कार ग्यारवीं या तेरहवीं तथा वरसी क्यों नहीं मनाते थे।
ध्यान देने योग्य बात ये है कि संकट काल में बहुत सारे नियम तथा रस्म अदायगी की परमपराएं परिस्थितियों के अनुसार बदल जाती हैं। परन्तु मूल तत्व किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता ही है।कोविड काल में हमने यह सब नजदीक से देखा और समझा है।हम जानते हैं कि कार्तिक अमावस्या कालरात्रि और सिद्धिदात्री के रुप में मानी जाती है।सारे सिद्ध और तांत्रिक यानि तंत्र मंत्र की सिद्धि चाहने बाले साधक गण अपनी विद्या को इस महान मुहूर्त में सिद्ध करते हैं। ईश्वर की महान कृपा भू-लोक वासियों पर इस दिन वरसती है और यह भी सनातनी मान्यता है कि इस महान् शुभ मुहूर्त में न केवल देवगण अपितु पितर (परलोकवासी आत्माएं) देवकृपा पाने की लालसा में इस भू-लोक में विचरण करती हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि नवरात्रि, शिवरात्रि इत्यादि स्वयं: सिद्ध शुभ मुहूर्त हैं और इन शुभ मुहूर्तों पर किये गये कार्य स्वयं सिद्ध माने जाते हैं। किसी पंडित से मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा विचार करके ही हमारे पूर्वजों ने इस स्वयं सिद्ध दीपावली की सिद्ध रात्रि को अपने पितरों को तृप्त करने के लिए चुना होगा जब वे धरा पर स्वयं विचरण कर रहे होते हैं।उनका आह्वान और तृप्त करना इस दिन अधिक सुगम होता है।
पृथ्वी लोक में हर तरह की शक्तियां इस दीवाली के अवसर पर विचरण कर रही होती हैं इसीलिए हमारे बड़े बुजुर्गों ने बच्चों को घर से बाहर जाने पर प्रतिबंध लगाया था और इसी कारण हमारे समाज में खेत खलिहान में जाना तथा फसल काटने इत्यादि की दीपावली में सख्त मनाही थी।आप वैसे भी सहमत होंगे कि चन्द्र और सूर्य की किरणें हमारे मनो मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं और इसीलिए हमारे सप्ताह के दिन इतवार (आदित्यवार)के बाद प्रारंभ होते हैं।त्योहार चन्द्र या सूर्य की गतिविधियां पर आधारित होते हैं। हमारे पूर्वज पर्याप्त ज्ञान रखते होंगे तभी प्रकृति से तारतम्य बैठाकर समाज के लिए सुगम तरीके खोज निकालने में सक्षम हुए।
आशा है,लोगों के द्वारा दिग्भ्रमित करने वाले विचार और फैलायी अवधारणाओं को हम सब समझ गये होंगे।हमारा उद्देश्य है कि हम जहां कहीं भी और किसी भी स्तर पर हमारे बारे में तोड़ मरोड़ कर लिखा जा रहा है उसे समय रहते अपेक्षित सुधार करायें और सम्मान पूर्ण अपनी परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखें।
ईश्वर से प्रार्थना है कि ज्ञान रुपी ज्योति हम सबका पथ प्रदर्शन करती रहे, इसी शुभेच्छा के साथ पुनः सभी भद्र जनों को दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।
पुष्पा राणा