जमीन, गांव और मेरी पहचान: एक राणा थारू किसान की आत्मकथा
जमीन, गांव और मेरी पहचान: एक राणा थारू किसान की आत्मकथा
🖋️नवीन सिंह
मैं एक राणा थारू किसान हूँ। मेरा जन्म उस भूमि पर हुआ, जिसे मेरे पुरखों ने अपने पसीने और श्रम से हरियाली में बदला था। बचपन से ही मैंने अपने पिता और दादा को खेतों में काम करते देखा। उस समय हमारी जमीनें तराई की शान थीं—उपजाऊ, हरी-भरी, और आत्मनिर्भरता का प्रतीक। हमारी जिन्दगी सीधे मिट्टी से जुड़ी थी, और खेतों के बीच बहती हवा में हमारी संस्कृति, परंपरा और पहचान का एहसास होता था।
लेकिन आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो मेरे दिल में एक टीस उठती है। वो जमीन, जो कभी हमारे गौरव का प्रतीक थी, अब पराई हो चुकी है। यह सब कैसे हुआ, इसकी कहानी मेरी जिन्दगी की सबसे बड़ी विडंबना है।
जमीन की कीमत और मेरी भूल
शुरुआत उस समय से हुई, जब तराई में बाजारों का विस्तार होने लगा। हमारे गांव की जमीन, जो कभी गुमनाम थी, अचानक से लोगों की नजरों में आ गई। बाहरी लोग हमारी जमीन खरीदने के लिए गांव आने लगे। उनके पास पैसे थे, और हमारी आंखों में सपने।
मेरे लिए भी यह निर्णय आसान नहीं था, लेकिन जब मेरे बच्चों की पढ़ाई, घर की जरूरतों और महंगाई का बोझ बढ़ने लगा, तो मैंने भी अपने हिस्से की कुछ जमीन बेच दी। मुझे लगा, यह पैसा मेरे परिवार की जिन्दगी बेहतर बना देगा।
पहली बार जब मैंने अपनी मुख्य सड़क के पास की जमीन बेची, तो मेरे दिल में हल्की सी बेचैनी थी। लेकिन मैंने खुद को समझाया कि इससे मैं अपने बच्चों का भविष्य बना सकता हूँ। पैसा आया, मैंने घर बनवाया, थोड़ा खर्च किया, और कुछ जमीन खरीदने की कोशिश भी की। लेकिन शायद वह जमीन उतनी उपजाऊ नहीं थी जितनी हमारी पुश्तैनी जमीन थी।
धीरे-धीरे गांव का बदलना
सालों बीतते गए, और मैंने देखा कि मेरा गांव बदल रहा था। जो रास्ते कभी हमारे थे, वे अब बाहरी लोगों के हो गए। मेरे पड़ोसी भी अपनी जमीनें बेच चुके थे। खेतों तक जाने के रास्ते अब कट चुके थे। मैं जब भी अपने पुराने खेतों की तरफ जाता, तो लगता जैसे मैं किसी अजनबी जगह पर आ गया हूँ।
गांव की पहचान मिटने लगी। बाहरी लोग गांव में बस गए और उनके बड़े-बड़े मकान हमारे पुराने घरों को ढकने लगे। मुझे लगता है, मेरा गांव कहीं छिप गया है।
आज का दर्द
अब मेरे पास जमीन तो है, लेकिन उस जमीन तक पहुंचने का रास्ता नहीं है। मुझे दूसरे लोगों के खेतों से होकर जाना पड़ता है, और हर बार ऐसा लगता है कि मैं अपने ही गांव में पराया हो गया हूँ। मेरे बच्चे, जो कभी खेतों में खेलते थे, अब जमीन से जुड़े नहीं हैं। उन्हें खेती में दिलचस्पी नहीं है, और मुझे डर है कि मैं उन्हें वह विरासत नहीं दे पाऊंगा, जो मेरे पुरखों ने मुझे दी थी।
सीख और उम्मीद
आज जब मैं अपनी कहानी लिख रहा हूँ, तो मेरा दिल भारी है, लेकिन मेरी आंखों में उम्मीद की किरण भी है। मैंने सीखा है कि जमीन केवल संपत्ति नहीं, बल्कि हमारी पहचान है। यह हमें केवल आर्थिक रूप से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी समृद्ध बनाती है।
मैं चाहता हूँ कि मेरी कहानी दूसरों के लिए एक सबक बने। राणा थारू समाज को अब एकजुट होना होगा। हमें जमीन की अहमियत समझनी होगी और इसे संभालकर रखना होगा।
अंतिम शब्द
यह मेरी आत्मकथा नहीं, बल्कि मेरे समाज की कहानी है। अगर हमने अब भी सही कदम नहीं उठाए, तो हमारी जमीनें, हमारे गांव और हमारी पहचान इतिहास में खो जाएगी। मुझे भरोसा है कि हम इसे रोक सकते हैं। हमें जागरूक होना होगा, अपने बच्चों को जमीन की अहमियत समझानी होगी, और अपने समाज को मजबूत बनाना होगा। यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है।
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