खेतों का दर्द: किसान की व्यथा आत्मकथा

खेतों का दर्द: किसान की व्यथा आत्मकथा

मैं रामदीन हूं, एक सीधा-सादा किसान। जीवन का हर दिन मैंने अपने खेतों और परिवार के लिए जीया। मेरे पास ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन जो था, वह मेरे लिए सब कुछ था—मेरी तीन बीघा जमीन, जो मैंने अपनी मेहनत से खरीदी थी। यह कहानी मेरी है, मेरे संघर्ष की, मेरी हार की, और उस सबक की, जो मैंने और मेरे गांव ने सीखा।

विश्वास पर किया गया सौदा: एक भूल

करीब 20 साल पहले की बात है। स्नेहीलाल, जो मेरे गांव का ही एक आदमी था, मुझसे अपनी तीन बीघा जमीन बेचने को राजी हुआ। मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं थे, लेकिन मैंने अपनी जमा पूंजी और थोड़ा उधार लेकर वह जमीन खरीद ली। सौदा साधारण स्टांप पेपर पर हुआ था। मैंने उस वक्त न तो वकील से सलाह ली, न किसी गवाह को बुलाया। मेरे मन में एक ही बात थी—“हम गांव के लोग हैं, हमारा रिश्ता विश्वास पर टिका है।”

उस दिन मुझे लगा कि मैंने अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली। मैंने उस जमीन पर काम शुरू किया, वहां फसलें उगाईं, और अपने बच्चों के भविष्य के सपने देखे।

बीस साल बाद: विश्वास का अंत

समय बीता। मेरे खेतों में हर साल फसलें लहलहाती थीं। लेकिन एक दिन, यह सपना टूट गया। स्नेहीलाल की मौत के बाद, उनके बेटे गिरधारीलाल ने मेरे खेतों पर दावा कर दिया। वह मेरे पास आया और कहा,
“यह जमीन मेरे पिता की है। जो पैसे दिए गए थे, वह उधार था। तुमने इसे खरीदा नहीं है। या तो इसे खाली कर दो, या अदालत में मिलो।”

मैं सुन्न हो गया। मेरी मेहनत, मेरे सपने, सब कुछ एक झटके में छिनने की कगार पर था। मैंने वह पुराना स्टांप पेपर निकाला और वकीलों के पास गया। उन्होंने मुझे बताया कि चूंकि रजिस्ट्री नहीं हुई थी, इसलिए मेरे पास जमीन पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है।

लड़ाई और समझौता

मैंने गिरधारीलाल से बात करने की कोशिश की। मैंने उसे समझाया कि मैंने यह जमीन खरीदी थी और 20 साल से इस पर खेती कर रहा हूं। लेकिन उसने मेरी एक न सुनी। उसके छोटे भाई से बातचीत हुई, तो उसने शुरुआत में रजिस्ट्री के लिए हामी भरी, लेकिन दबाव में आकर वह भी मुकर गया।

मैं कमजोर था। मेरे पास न पैसा था, न ताकत। गिरधारीलाल ने अदालत में मुकदमा करने की धमकी दी। मुझे डर था कि अगर मैं कोर्ट गया, तो मेरी बची हुई जमा पूंजी भी खत्म हो जाएगी। आखिरकार, मैंने समझौता किया। डेढ़ लाख रुपये लेकर मैंने अपनी जमीन उसे सौंप दी।

हार का दर्द

उस दिन मैं सिर्फ अपनी जमीन नहीं हारा। मैं अपने आत्मसम्मान, अपने सपनों और अपने अधिकारों की लड़ाई हार गया। जिस जमीन को मैंने अपने खून-पसीने से सींचा था, वह अब मेरी नहीं रही। मेरे गांव वाले मुझे दिलासा दे रहे थे, लेकिन मेरा दिल टूट चुका था।

समाज के लिए सबक

मेरी इस हार ने गांव के लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। मेरी कहानी हर चौपाल पर चर्चा का विषय बन गई। लोग कहने लगे,
“रामदीन की यह गलती हमारी भी हो सकती थी। हमें जागरूक होना पड़ेगा। जमीन के लेन-देन में कानूनी प्रक्रिया का पालन करना होगा।”

गांव में सभाएं हुईं। हमने मिलकर फैसला किया कि अब से हर जमीन का सौदा रजिस्ट्री के साथ होगा। लोगों ने भूमि कानूनों की जानकारी लेना शुरू किया। मेरी हार ने मेरे गांव को जागरूक कर दिया।

मेरे दिल की पुकार

आज भी, जब मैं अपने उन खेतों के पास से गुजरता हूं, तो मेरी आंखें भर आती हैं। मुझे लगता है कि मैंने लड़ाई अधूरी छोड़ दी। अगर मैं थोड़ा और साहस करता, अगर मैं समय रहते विवेक से काम लेता, तो शायद आज मेरी जमीन मेरे पास होती।

मेरा दर्द सिर्फ मेरा नहीं है। यह उन सभी किसानों का है, जो अपनी जमीन और अधिकार खो चुके हैं। यह उन कमजोर लोगों की पुकार है, जो दबंगों और भू-माफियाओं के आगे हार मान लेते हैं।

अधिकारों के लिए लड़ाई का आह्वान

मैं हार गया, लेकिन मेरा संदेश साफ है—अपने अधिकारों के लिए लड़ो। कानून को जानो। डर से बाहर निकलो। अगर हम संगठित होंगे और साहस दिखाएंगे, तो कोई भी हमारी जमीन छीन नहीं सकता।

“यह लड़ाई सिर्फ मेरी नहीं थी। यह उन सभी गरीब किसानों की है, जो अपने अधिकारों के लिए चुप रहते हैं। मेरी हार को अपनी प्रेरणा बनाओ और अपने अधिकारों के लिए खड़े हो जाओ।”

यह कहानी मेरी आत्मा की पुकार है।
“संपत्ति पर अधिकार उसे मिलता है, जो साहस और विवेक से लड़ता है।”


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