पुष्पा राणा जी से वार्ता with राणा संस्कृति मंजूषा
### **राणा संस्कृति मंजूषा: पुष्पा राणा जी से वार्ता**
संकलन कर्ता: नवीन सिंह राणा
**नवीन सिंह राणा (सवाल):** पुष्पा जी नमस्ते, राणा संस्कृति मंजूषा आपका हार्दिक स्वागत करता है। आशा है हमारे पाठकों के लिय आज आप बेहतरीन जानकारियां लाई होंगी। मेडम जी,
राणा संस्कृति में देवताओं की पूजा और रीति-रिवाजों के बारे में बहुत कुछ सुना है। आपने जिक्र किया कि कुछ लोग ग़लत धारणाएं फैला रहे हैं कि देवता पूजन के समय एक विशेष गीत गाया जाता है। कृपया इस पर विस्तार से बताइए।
**पुष्पा राणा (जवाब):** राणा संस्कृति मंजूषा के पाठकों को मेरा नमस्ते।
बिल्कुल नवीन जी, यह एक महत्वपूर्ण विषय है। देवता पूजन के समय कुछ ग़लतफहमियां फैलाई जा रही हैं कि पूजा के दौरान "बन जयिये, बन जयिये ख्याल हमारो बन जयिये" गाना गाया जाता है। लेकिन यह पूरी तरह से ग़लत है। देवताओं की पूजा के समय इस प्रकार का कोई गाना नहीं गाया जाता। यह गाना स्वांग (नाटकीय प्रस्तुति) के दौरान गाया जाता है, जिसमें मनोरंजन और अभिनय का तत्व होता है। देव पूजन के समय हम देवताओं से हाथ जोड़कर विनती करते हैं, और उन्हें श्रद्धा से प्रसाद अर्पित करते हैं, इस विश्वास के साथ कि वह हमारे परिवार, घर-द्वार, बच्चों और खेतों की रक्षा करेंगे।
**नवीन सिंह राणा (सवाल):** तो, देव पूजन के समय कौन से शब्दों या मंत्रों का उपयोग किया जाता है?
**पुष्पा राणा (जवाब):** पूजा के दौरान हम देवताओं से विशेष विनती करते हैं कि जो भी हम प्रसाद अर्पित कर रहे हैं, वह केवल उनके लिए है, किसी और का इसमें हिस्सा नहीं है। हम उनसे हमारे घर-परिवार और विशेष रूप से खेतों और खलिहानों की रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं। एक प्रमुख बात यह भी होती है कि हम उनसे आग्रह करते हैं कि "हरे पेरे डोरा समारिये", अर्थात् सांपों से हमारी रक्षा करें। यह एक प्राचीन प्रार्थना है जो हमारे समाज में पीढ़ियों से चली आ रही है।
**नवीन सिंह राणा (सवाल):** होली के दौरान राणा समाज में भुइंया पूजन की परंपरा कैसी थी? क्या विशेष गाने या रस्में होती थीं?
**पुष्पा राणा (जवाब):** होली के दौरान पहले भुइंया पूजी जाती थी, और फिर लोग गाना गाते हुए वापस आते थे। एक प्रसिद्ध गाना था:
"रे भमानी मैया तेरेलाखो नाय,लाखों पांय। काहे की तेरो लढ़ुआ बनो है? कहां के जुते रे बामै खैला (जवान बैल)।"
इस गीत के माध्यम से हम देवी भमानी (धरती माता) का आह्वान करते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि हमारे खेतों में उगाए अनाज और पशुधन की सुरक्षा करें। यहां 'लढ़ुआ' का अर्थ धरती से मिलने वाले अन्न से है, और 'बामै खैला' का संदर्भ हमारे मजबूत और स्वस्थ बैलों से है, जो खेती में हमारे सहायक होते हैं।
इसके बाद हम देवी की सवारी का भी जिक्र करते हैं:
"कौन तेरी सवारी हंकावै, कौन बामै बैठो जाय।
अरे चन्दन को तेरो लढ़ुआ बनो है, नागौरी जुते हैं रे खैला।
लंगूरा (हनुमानजी मां का झंडा लेकर आगे चलते हैं, ऐसी मान्यता है) हांके रे, सवारी, बामै भमानी बैठी जाय।"
इस गीत में यह वर्णित है कि हनुमान जी, जिन्हें हम लंगूरा भी कहते हैं, माता भमानी के आगे-आगे झंडा लेकर चलते हैं। यह सब गीत, परंपराएं और मान्यताएं हमारे समाज के गहरे धार्मिक और सांस्कृतिक संबंध को दर्शाते हैं।
**नवीन सिंह राणा (सवाल):** यह सब सुनकर बहुत रोचक लग रहा है। क्या आप यह भी बता सकती हैं कि कैसे ये प्रथाएं हमारी संस्कृति में अपनी पहचान बनाए रखने का काम करती हैं?
**पुष्पा राणा (जवाब):** ये प्रथाएं और गाने हमारी पहचान हैं। वे केवल धार्मिक क्रियाकलाप नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज की एकजुटता, आपसी सम्मान और प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक हैं। ये हमें यह सिखाते हैं कि हम केवल अपने लाभ के लिए नहीं जीते, बल्कि पूरे समुदाय और प्रकृति के साथ जुड़कर ही एक संतुलित जीवन जीते हैं। देवता, धरती, पशुधन, और परिवार—इन सभी के साथ हमारे संबंधों का महत्व इन प्रथाओं के माध्यम से उभरकर आता है।
**नवीन सिंह राणा (सवाल):** पुष्पा जी, आपका धन्यवाद! यह जानकारी न केवल हमारे समाज के लिए बल्कि अगली पीढ़ी के लिए भी बहुत प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक है।
**पुष्पा राणा (जवाब):** धन्यवाद, नवीन जी। मुझे खुशी है कि मैं इस बारे में बात कर पाई। हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखना चाहिए, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपने इतिहास और विरासत से जुड़ी रहें।