श्री मति पुष्पा राणा जी और नवीन सिंह राणा के बीच ऐतिहासिक वार्तालाप**

**पुष्पा राणा और नवीन सिंह राणा के बीच ऐतिहासिक वार्तालाप**
संकलन कर्ता 
✍️ नवीन सिंह राणा 

(*श्रीमती पुष्पा राणा जी नवीन सिंह राणा को ऐतिहासिक प्रमाण स्वरूप राणा राजपूतों की परम्पराओं की जानकारी दे रही हैं।*)


नवीन सिंह: "नमस्ते, मैडम जी ! राणा संस्कृति मंजूषा में आपका स्वागत है।आप समय समय पर हमारे समाज के लोगों को अपनी राणा संस्कृति और इतिहास की जानकारी देती रहती हैं, आज हमारे पाठकों के लिय कोन सी नई जानकारी प्रस्तुत कर रहीं हैं।"
**पुष्पा राणाजी: 
"नमस्ते नवीन जी, राणा संस्कृति मंजूषा के सभी सम्मानित पाठकों को मेरा प्रणाम।
आशा है आप सभी कुशल मंगल से होंगे। आज 
यह जानना ज़रूरी है कि हम राणा राजपूतों के विस्थापित वंशज हैं। हमारी पूजा पद्धति भी इसी परम्परा का अनुसरण करती है। हर किले या बस्ती के अंदर और बाह्य सीमा पर शक्ति स्थल, यानी माँ भवानी की स्थापना करना अनिवार्य होता था। आज भी हमारे समाज में इस परंपरा का पूरी तरह से पालन किया जाता है। सबसे पहले जब मीरा बारह राणा बस्ती बसाई गई थी, उससे पूर्व कुसमौठ में माँ भवानी की स्थापना की गई थी, जिसे *भूमसेन* कहा जाता है। इस स्थल का निर्माण मातृभूमि की मिट्टी के अंश से हुआ था, इसलिए इसका महत्व अत्यधिक है।

**नवीन सिंह:**  
"इस भूमसेन की परंपरा का क्या महत्व है, पुष्पा जी?"/

**पुष्पा राणा:**  
"भूमसेन का महत्व यह है कि यह विस्थापित दस्ते के लिए उनकी मातृभूमि की प्रतीक होती थी। हर नई बस्ती के बसने से पहले भूमसेन की स्थापना की जाती थी, और इसके बाद ही बस्ती की आधारशिला रखी जाती थी। यही कारण है कि हर नई बस्ती के बाहर इसी मिट्टी का उपयोग करके भूमसेन स्थापित किया जाता रहा है।"

**नवीन सिंह:**  
"क्या हर घर में भी देवी-देवताओं की स्थापना इसी प्रकार होती थी?"

**पुष्पा राणा:**  
"हाँ, बिल्कुल। हर घर को एक छोटी बस्ती की तरह माना जाता था और वहां भी शक्ति केन्द्र स्थापित किया जाता था। लेकिन एक खास बात यह है कि हर घर में देवी स्थापना एक जैसी नहीं होती। किसी के घर में माँ पार्वती के कन्या कुमारी रूप की पूजा होती थी, जिसे "क्वारी परवतिया" कहा जाता था। वहाँ पर बड़े कड़े नियम होते थे, जैसे पिंडी के आसपास तीन फीट ऊँची दीवार से आड़ दी जाती थी, और पूजा केवल घर की वरिष्ठ महिला द्वारा की जाती थी। "

**नवीन सिंह:**  
"तो क्या घर के बाहर भी ऐसे देवी-देवताओं की पूजा होती थी?"

**पुष्पा राणा:**  
"हाँ, घर के बाहर भी कई देवी-देवताओं की पूजा होती थी, जैसे *कालका माता*, *नगरेयायी* (नगर की रक्षक माता), और *गुल्ला देवता* जिन्हें न्याय का प्रतीक माना जाता है। इनका बाह्य प्रदर्शन नहीं किया जाता, और पूजा भी बड़े बुजुर्गों द्वारा ही की जाती है। खासकर गुल्ला देवता के घरों में दरवाजे कभी बंद नहीं होते थे, क्योंकि माना जाता था कि यदि कोई चोर आता, तो वह अंधा हो जाता और वहीं बैठा रह जाता।  "

**नवीन सिंह:**  
"यह परंपराएँ वाकई अद्वितीय हैं। हर देवी-देवता की पूजा में यह भिन्नता क्यों थी?"

**पुष्पा राणा:**  
"इसका कारण यह था कि विस्थापित दस्ते के लोग भिन्न-भिन्न राजपूत वंशों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, इसलिए उनके देवता भी अलग-अलग थे। मुखिया राणा वंश से ही होते थे, इसलिए अधिकांश परंपराएँ राणा समाज से मेल खाती हैं। *भगवान एकलिंग शिव* राणाओं के ईष्ट देव हैं, इसलिए शिवलिंग की स्थापना हर घर में अनिवार्य होती थी। राणा समाज में शिवरात्रि का व्रत आज भी दो दिनों तक रखा जाता है, जो आस्था की गहराई को दर्शाता है।"

**नवीन सिंह:**  
"भूमसेन की पूजा किस तरह की जाती है?"

**पुष्पा राणा:**  
"भूमसेन में चैत्र मास में विशेष पूजा की जाती है। पहले साफ-सफाई की जाती है, और फिर मेवा-मिष्ठान और नवान्न का भोग चढ़ाया जाता है। इसके बाद घर की मिट्टी से लिपाई-पुताई की जाती है। विजय दशमी के आसपास भी यही प्रक्रिया दोहराई जाती है। आषाढ़ महीने में भी आषाढ़ी मनायी जाती है और देवताओं को लपसी, पुरी, और गुलगुले जैसे राजस्थानी पकवान चढ़ाए जाते हैं। *गोलू देवता* को चावल के आंटे से बने गुल्ले (छोटे गोले) चढ़ाए जाते हैं, जिन्हें भाप में पकाया जाता है। "

**नवीन सिंह:**  
"क्या यह सब अब भी प्रचलित है?"

**पुष्पा राणा:**  
"जी, यह परंपराएँ आज भी निभाई जाती हैं। हमारे राणा समाज में देवी-देवताओं की पूजा बाह्य प्रदर्शन से बचते हुए बड़े बुजुर्गों द्वारा चुपचाप की जाती है। यह एक विस्तृत विषय है, लेकिन मैंने तुम्हें कुछ महत्वपूर्ण झलकियाँ दी हैं।"

**नवीन सिंह:**  
"आपकी जानकारी बेहद महत्वपूर्ण है, पुष्पा जी। इससे हमारी परंपराओं की गहराई और ऐतिहासिक महत्व का पता चलता है।"

**पुष्पा राणा:**  
"यह हमारी धरोहर है, नवीन। इसे समझना और आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है।"
नवीन सिंह: "आपका बहुत बहुत धन्यवाद, निश्चित ही हमारे पाठक इस जानकारी प्राप्त कर प्रसन्न होंगे। आपका राणा संस्कृति मंजूषा की ओर से पुनः धन्यवाद।"

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