संस्मरण: आदिवासी और वनवासी समाज के अदृश्य सूत्र**अजनबी कलम से

**संस्मरण: आदिवासी और वनवासी समाज के अदृश्य सूत्र**
एक अजनबी कलम से 

जब मैं पहली बार एक घने जंगल के किनारे बसे एक छोटे से गाँव में पहुँचा, तो वहाँ की हवा में एक अलग ही सौंधापन महसूस हुआ। आदिवासी समाज से मेरा परिचय केवल किताबों और समाचारों के माध्यम से हुआ था, लेकिन उस दिन मुझे उनके जीवन का सजीव अनुभव हुआ। गाँव की एक बुजुर्ग महिला ने मेरे स्वागत में कहा, "आप तो शहर के आदमी हैं, लेकिन हमारे पास जंगल है—हमारी आत्मा है।" यह वाक्य मेरे मन में गहरे बैठ गया।

यहीं से मेरा सफर शुरू हुआ—आदिवासी और वनवासी समाज को समझने का। उन लोगों के बीच कई दिन बिताने के बाद मैंने महसूस किया कि 'आदिवासी' और 'वनवासी' सिर्फ शब्द नहीं हैं, बल्कि यह समाज की पहचान का प्रतीक हैं। आदिवासी—जो सैकड़ों, बल्कि हजारों साल से इस भूमि के वास्तविक निवासी रहे हैं, और वनवासी—जो जंगल की गोद में बसे हुए, प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर जीवन जीते हैं।

कई लोग आदिवासियों और वनवासियों के बीच फर्क को समझ नहीं पाते। मेरा भी यही हाल था। पर जब मैंने उनके बीच रहकर उनकी जीवनशैली देखी, तब यह स्पष्ट हुआ कि आदिवासी समाज की अपनी एक समृद्ध संस्कृति, भाषा और परंपराएँ हैं। वे सिर्फ जंगल में रहने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि उनकी जड़ें इस धरती की प्राचीनतम सभ्यताओं में गहराई तक समाई हुई हैं। वहीं, वनवासी उन लोगों को कहा जाता है जो जंगलों में रहते हैं, चाहे वे आदिवासी हों या न हों। जंगल ही उनका जीवन और रोज़गार का आधार होता है।

पर आज की स्थिति देखिए। एक ओर आधुनिकता का प्रभाव, दूसरी ओर राजनीतिक और सामाजिक भेदभाव। मैंने देखा कि इन दोनों समाजों के बीच भ्रम और असमंजस फैल रहा है। 'आदिवासी' शब्द का राजनीतिक और कानूनी महत्व है, जबकि 'वनवासी' का इस्तेमाल भी कई बार बिना समझे किया जाता है। इसका सीधा परिणाम यह है कि इन समाजों के लोग अपने वास्तविक अधिकारों से वंचित हो जाते हैं। 

मुझे याद है, एक दिन एक युवा आदिवासी लड़के से मेरी चर्चा हुई। उसने मुझसे कहा, "हमारे बुजुर्ग हमें अपने अधिकारों के बारे में नहीं बता पाए। हमें तो अब जाकर पता चला है कि हमारे लिए संविधान में कई अधिकार दिए गए हैं—शिक्षा, नौकरी, और भूमि के अधिकार।" यह सुनकर मेरे दिल में एक टीस उठी। सोचिए, हमारे देश में ऐसे कितने युवा होंगे जिन्हें अपने संवैधानिक अधिकारों की जानकारी नहीं है, और इस कारण वे अपने भविष्य को संवारने का अवसर खो रहे हैं।

संविधान ने आदिवासी समाज को अनुसूचित जनजातियों (ST) के रूप में मान्यता दी है। मैंने देखा कि गाँव के कई बच्चों को यह नहीं पता था कि उन्हें शिक्षा में आरक्षण का लाभ मिल सकता है। वे सरकारी नौकरियों में आरक्षण के अधिकारों से अनभिज्ञ थे। इन अधिकारों के बिना उनके पास शिक्षा और विकास के अवसर कम हो जाते हैं। 

एक और बात जिसने मुझे झकझोर दिया, वह थी जंगल और जमीन पर उनके पारंपरिक अधिकारों की उपेक्षा। मेरे सामने कई आदिवासी लोगों ने अपनी जमीन खोने की पीड़ा साझा की। उनके लिए जमीन सिर्फ आजीविका का साधन नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति और जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पर उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि संविधान ने उन्हें उनकी भूमि पर अधिकार दिए हैं, जिसे वे पीढ़ियों से संभालते आ रहे हैं।

आज, मेरे विचार में यह जरूरी हो गया है कि आदिवासी समाज का हर सदस्य अपने अधिकारों को जाने। वे केवल जंगलों और संसाधनों के संरक्षक ही नहीं हैं, बल्कि उन्हें समाज के विकास और राजनीति में भी भागीदार बनना चाहिए। मैंने गाँव में रहते हुए देखा कि जब एक युवा आदिवासी अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हुआ, तो उसने न केवल अपनी जिंदगी बदली, बल्कि अपने समुदाय के लिए भी नई संभावनाएँ खोलीं।

संविधान ने जो अधिकार उन्हें दिए हैं, वे केवल कागज पर नहीं, बल्कि उनकी जड़ों में समाए हुए हैं। आज का आदिवासी युवा अगर अपने अधिकारों को समझेगा, तो वह खुद को और अपने समाज को नई ऊँचाइयों पर ले जा सकता है। मैंने कई बार सोचा कि शायद ये अधिकार उन्हें इसलिए दिए गए हैं ताकि वे केवल खुद के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक नई दिशा तैयार कर सकें।

जब मैं उस गाँव से विदा ले रहा था, तो मेरी नजर फिर से उसी बुजुर्ग महिला पर पड़ी। वह अब भी अपनी जमीन पर काम कर रही थी, पर उसकी आँखों में एक नई चमक थी। शायद उसे भी यह एहसास हो गया था कि वह केवल एक वनवासी या आदिवासी नहीं है, बल्कि इस धरती की असली वारिस है।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

राणा एकता मंच बरेली द्वारा अयोजित वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप सिंह जयंती कार्यक्रम published by Naveen Singh Rana

**"मेहनत और सफलता की यात्रा: हंसवाहिनी कोचिंग की कहानी"**

राणा समाज और उनकी उच्च संस्कृति written by shrimati pushpa Rana