"जंगल का आँगन"**समाजिक ताने बाने से बुनी कहानी ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा की प्रस्तुति

 **"जंगल का आँगन"**
समाजिक ताने बाने से बुनी कहानी 

✍️ राणा संस्कृति मंजूषा की प्रस्तुति 

घने जंगलों के बीच बसे छोटे-छोटे गाँव, मिट्टी के घर, और अपने रीति-रिवाजों से बंधे लोग। ये समाज अपने धैर्य और मेहनत के लिए जाना जाता है, लेकिन इनकी आँखों में बसी गरीबी की गहरी लकीरें अक्सर अनकही रह जाती हैं।

गाँव के एक कोने में बसा था कमला देवी का घर। कमला, जो अब करीब पैंतीस साल की हो चली थी, एक मेहनतकश महिला थी। उसकी दिनचर्या सूरज के साथ शुरू होती और चाँद के साथ खत्म होती। चार बच्चों की माँ, जिनके पिता की मौत कई साल पहले एक भयंकर बुखार में हो गई थी। पति के जाने के बाद से ही कमला ने अपनी कमर कस ली थी कि चाहे कितनी भी मुसीबतें आएं, वह अपने बच्चों का पेट भरने और उन्हें एक बेहतर जीवन देने की पूरी कोशिश करेगी।
 समाज में खेती ही प्रमुख साधन था, लेकिन कमला की खेती अब बंजर हो चुकी थी। गाँव के अन्य लोगों की तरह उसका परिवार भी पूरी तरह खेती पर निर्भर था, परन्तु बारिश की अनियमितता, जंगलों की कटाई, और बाजार तक पहुँचने में हो रही कठिनाइयों ने उसके छोटे से खेत को निरर्थक बना दिया था। उस खेत से अब सिर्फ खाने भर का अनाज मिल पाता था, और कभी-कभी तो वह भी नहीं।
कमला के बच्चे बड़े हो रहे थे। बड़े बेटे अर्जुन की उम्र अब तेरह साल हो चुकी थी। स्कूल जाने के सपने को उसने कब का अलविदा कह दिया था। गाँव के स्कूल की हालत ऐसी थी कि वहाँ पढ़ाई कम, संघर्ष ज्यादा था। अर्जुन अब दिन भर जंगल से लकड़ी लाता, जिसे कमला हाट में जाकर बेचने की कोशिश करती। लेकिन हाट तक पहुँचने में भी कई चुनौतियाँ थीं – कभी पुलिस की रोक, तो कभी बिचौलियों का शोषण।

कमला की दो बेटियाँ, पिंकी और सुनीता, अब दस और आठ साल की हो चली थीं। घर के सारे काम अब उन्हीं के कंधों पर थे। चाहे पानी भरना हो, खाना पकाना, या छोटे भाई रघु की देखभाल करना – सब काम उन पर ही था। बचपन उनके लिए सिर्फ एक सपना बनकर रह गया था। खेलने-कूदने की उम्र में वे घर की जिम्मेदारियों का बोझ ढो रही थीं।
कमला के चेहरे पर हमेशा चिंता की रेखाएँ खिंची रहतीं, पर दिल में एक उम्मीद थी। उसे यकीन था कि उसकी मेहनत एक दिन रंग लाएगी, और उसके बच्चे इस गरीबी के दलदल से बाहर निकलेंगे। हर रोज़ वह अपनी बेटियों से कहती, "हमारा जीवन भले ही मुश्किलों से भरा हो, पर तुम लोगों को पढ़ना है। मैं किसी भी तरह तुम्हें स्कूल भेजने का इंतजाम करूँगी।"

लेकिन समाज में फैली गरीबी और अज्ञानता उस पर भारी पड़ती थी। सरकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुँच ही नहीं पाता था, और अगर कोई सहायता आती भी थी, तो गाँव के मुखिया या बिचौलियों के हाथों में जाकर अटक जाती। कमला को पता था कि इस समाज में उसे खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी।

अर्जुन को अपने माँ की हालत देखकर गुस्सा आता था। एक दिन जब वह जंगल से लकड़ी लेकर लौट रहा था, गाँव के कुछ लड़कों ने उसे छेड़ा। "तू जंगल में ही जिंदगी काट देगा? या कभी कुछ बड़ा करने की सोचेगा?" अर्जुन ने उन लड़कों की बातों का जवाब नहीं दिया, पर उस रात उसने माँ से कह दिया कि अब वह काम नहीं करेगा। वह शहर जाना चाहता था, जहाँ शायद उसे बेहतर मौके मिल सकें।

कमला को अपने बेटे की यह बात सुनकर धक्का लगा, पर उसने अर्जुन को रोका नहीं। उसे भी महसूस हो रहा था कि अर्जुन अब बड़ा हो गया है और उसे अपने जीवन के फैसले खुद लेने का हक है। पर उसके दिल में डर भी था – शहर का जीवन आसान नहीं होता। अर्जुन के जाने के बाद घर की हालत और भी कठिन हो गई। अब कमला और उसकी बेटियों को और ज्यादा काम करना पड़ता था। 
शहर में पहुँचते ही अर्जुन को समझ आ गया कि यहाँ की जिन्दगी गाँव से बिल्कुल अलग है। काम मिलना मुश्किल था, और जो भी काम मिलता था, उसकी मजदूरी बेहद कम थी। अर्जुन ने कई बार सोचा कि वापस घर लौट जाए, लेकिन अपनी माँ का चेहरा याद कर वह खुद को रोके रखता। एक दिन उसे एक छोटे से होटल में बर्तन धोने का काम मिल गया। यह काम बहुत कठिन था, पर अर्जुन को इसमें एक उम्मीद नजर आ रही थी।

कमला और अर्जुन की बातचीत अब सिर्फ चिट्ठियों तक सीमित थी। अर्जुन जब भी अपनी माँ को लिखता, उसकी चिट्ठी में सिर्फ एक ही बात होती – "माँ, मैं जल्द ही कुछ बड़ा करूँगा और हमें इस गरीबी से निकाल लूँगा।" कमला इन चिट्ठियों को पढ़कर अपने आँसू रोक नहीं पाती। उसे अपने बेटे पर गर्व था, पर अपने बच्चों को इस हाल में देखकर उसका दिल भी टूटता था।

एक दिन अर्जुन ने माँ को चिट्ठी में लिखा, "माँ, अब मुझे होटल में प्रमोशन मिल गया है। अब मैं रसोइए के सहायक का काम करता हूँ।" यह खबर सुनकर कमला के मन में एक आशा की किरण जगी। अर्जुन के काम का यह छोटा सा बदलाव उसकी जिन्दगी को बदल सकता था। कमला ने अपने खेत को फिर से तैयार करने की ठानी। उसने अपने गाँव की महिलाओं को एक साथ लाने का फैसला किया ताकि वे मिलकर छोटे पैमाने पर सब्जियाँ उगा सकें और बाजार में बेच सकें।

धीरे-धीरे गाँव में जागरूकता बढ़ने लगी। कमला और अन्य महिलाओं ने एक समूह बनाया, जहाँ वे अपनी समस्याओं को एक साथ सुलझाने लगीं। अर्जुन की कमाई से भी थोड़ी मदद मिलने लगी। गाँव के बच्चे अब फिर से स्कूल जाने लगे थे। गरीबी का दंश अभी भी उनके जीवन से पूरी तरह मिटा नहीं था, लेकिन एक बदलाव की बयार जरूर बहने लगी थी।

कमला और अर्जुन का जीवन समाज की गरीबी और संघर्ष की कहानी है, लेकिन इस कहानी में एक उम्मीद भी है। यह कहानी दर्शाती है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, यदि मन में साहस और धैर्य हो, तो परिवर्तन संभव है। कमला और अर्जुन का संघर्ष न सिर्फ उनकी अपनी कहानी है, बल्कि पूरे राणा थारू समाज की कहानी है, जो आज भी हर रोज़ गरीबी से लड़ते हुए अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहा है।

कमला आज भी खेत में काम करती है, अर्जुन शहर में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहा है, और पिंकी और सुनीता अब स्कूल में पढ़ाई कर रही हैं। गरीबी की जंजीरें अभी पूरी तरह से नहीं टूटीं, पर उनमें दरारें जरूर आ चुकी हैं।

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