झींझी और हन्ना: राणा थारू समाज की सांस्कृतिक धरोहर के जीवंत प्रतीक"**


 "झींझी और हन्ना: राणा थारू समाज की सांस्कृतिक धरोहर के जीवंत प्रतीक"**
✍️ नवीन सिंह राणा 


राणा थारू समाज आदिकाल से ही प्रकृति के साथ गहरे संबंध में बंधा हुआ है, और इसने अपनी परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहरों के माध्यम से प्रकृति की पूजा को अपनी जीवनशैली का अभिन्न अंग बना लिया है। समाज की विभिन्न परम्पराओं में तीज, झींझी, हन्ना, नाच, और स्वांग जैसे अनुष्ठानों का विशेष महत्त्व है। इनमें से झींझी और हन्ना, सदियों पुरानी परंपराएं, राणा थारू समाज को एक अद्वितीय पहचान देती हैं। ये दोनों परंपराएं प्रकृति की गोद में खेले जाने वाले गीत और नृत्य के सुंदर सम्मिलन हैं।

झींझी और हन्ना की परंपराएं एक-दूसरे की पूरक हैं। झींझी, थारू समाज की बहनों, बेटियों और नवविवाहिताओं द्वारा गाया और नाचा जाने वाला अनुष्ठान है, जबकि हन्ना युवा भाइयों और पुरुषों का नृत्य है, जो इसी समय प्रस्तुत किया जाता है। सावन और भाद्रपद माह में जब मक्का पककर तैयार होता था, तब यह उत्सव मनाया जाता था। हन्ना और झींझी की टीमें गाँव के हर घर जाकर अपने नृत्य और गीत प्रस्तुत करती थीं, और बदले में एक माना (चावल मापने का पात्र) चावल या मक्का दान स्वरूप लिया जाता था। जब पूरे गाँव में इनका प्रदर्शन हो जाता था, तब विधिवत रूप से इनकी विदाई की जाती थी। 
झींझी का नृत्य करती हुई युवतियां काल्पनिक चित्र 


झींझी परंपरा में मिट्टी की हांडी को झींझी मैय्या का प्रतीक माना जाता है। इस पात्र को सजाने के लिए इसमें बरमा नामक यंत्र से छोटे-छोटे छेद किए जाते हैं और अंदर सरसों के तेल से दीपक जलाया जाता है। बहनें और नववधुएँ पारंपरिक वेशभूषा में सजी-धजी झींझी मैय्या को सिर पर रखकर नृत्य करती हैं, जबकि उनकी सहेलियाँ और परिवार की अन्य महिलाएँ झींझी गीत गाती हैं। यह गीत प्रकृति, जीवन और समाज के सामूहिक जीवन की कहानियों से जुड़े होते हैं, जो लोकगाथाओं से प्रेरित होते हैं। जब वे घर-घर जाकर नृत्य करती हैं, तो बदले में उस घर के लोग उन्हें अन्न का दान देते हैं, जिसे झींझी मैय्या को अर्पित किया जाता है।
भुट्टे अर्थात मक्के की फसल तैयार होने का समय और झींझी परंपरा का काल्पनिक चित्र 


वहीं दूसरी ओर, हन्ना, युवा पुरुषों द्वारा खेला जाने वाला एक अनोखा नृत्य है। Y आकार की लकड़ी को सजाया जाता है, और इसमें से एक युवा हिरण की तरह कूद-फांद कर 'हन्ना' का प्रतिनिधित्व करता है। हन्ना नृत्य के साथी, लोककथाओं पर आधारित गीत गाते हुए, पूरे गाँव में खुशियाँ बिखेरते हैं। यह नृत्य समाज के विभिन्न पहलुओं पर हंसी-मजाक के रूप में टिप्पणी करता है, और लोगों को प्रसन्न करने का प्रयास होता है। 

इन परंपराओं से जुड़ी कई किवदंतियाँ राणा समाज में प्रचलित रही हैं, जिनमें यह मान्यता है कि झींझी मैय्या घर-घर जाकर प्रकाश फैलाती हैं, और बदले में गाँव के लोग उन्हें अन्न देकर अपनी समृद्धि और सुख-शांति की कामना करते हैं। इसी प्रकार हन्ना नृत्य में यह विश्वास किया जाता है कि हन्ना हमारे दुख-दर्द को साथ लेकर जाएगा। कुछ का मानना है कि अतीत में बरसात का समय बड़ा कठिन समय होता था उस समय, जब कई घरों में अन्न की कमी हो जाती थी, तो समाज के संपन्न घरों से  मांग कर खाने के बजाय, हन्ना और झींझी की परंपराओं के माध्यम से दान स्वरूप अन्न इकट्ठा किया जाता था। 

समय के साथ इन परंपराओं में कई परिवर्तन आए हैं, और कुछ किवदंतियाँ समय के साथ लुप्त भी हो गईं। फिर भी, राणा थारू समाज की ये सांस्कृतिक धरोहरें आज भी जीवित हैं, और समाज को उसकी जड़ों से जोड़े रखती हैं। यह परंपराएं न केवल समाज के सामूहिक जीवन और भाईचारे का प्रतीक हैं, बल्कि यह प्रकृति के साथ थारू समाज के अनूठे रिश्ते को भी व्यक्त करती हैं। 

यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन अमूल्य परंपराओं को संजोए रखें और आने वाली पीढ़ियों को इनके महत्व से अवगत कराएं, ताकि हमारा प्रकृति-पूजक समाज अपनी धरोहरों के साथ युगों-युगों तक जीवित रहे। झींझी और हन्ना, राणा थारू समाज की पहचान बने रहें, और यह संस्कृति अपनी प्राकृतिक सुंदरता, उत्सवधर्मिता और सामूहिकता की भावना को जीवित रखे।

नोट: प्रस्तुत लेख विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारियों के आधार पर लिखा गया है जिसमे कई विरोधाभास या जानकारी में कुछ छूटा हुआ हो सकता है आशा है सुधार हेतु सहयोग करेंगे )

 धन्यवाद!

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