अंधविश्वास की जंजीरों से मुक्ति की कथा
**अंधविश्वास की जंजीरों से मुक्ति की कथा**
सुदर्शनपुर नामक गाँव में कई पीढ़ियों से एक ही परंपरा चली आ रही थी। हर साल, गाँव के लोग बाबा के सत्संग में बड़ी संख्या में शामिल होते थे। बाबा का दावा था कि उनके पास ईश्वरीय शक्तियाँ हैं जो हर किसी की परेशानी दूर कर सकती हैं। गाँव वालों की भक्ति इतनी गहरी थी कि उन्होंने अपनी सोच और विवेक का इस्तेमाल बंद कर दिया था। और दिन रात उन्हीं पर विश्वास बनाकर संगत करते रहते थे। और कामनाओं , प्रार्थनाओं के द्वारा ही हर कार्य होने की आशा करते रहते थे। जिससे कभी कभी उनको बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ जाता था। लेकिन विश्वास को डिगने नही देते थे।
राजेन्द्र सिंह गाँव का सबसे पढ़ा-लिखा व्यक्ति था। उसने बड़े शहर में पढ़ाई की थी और वह विज्ञान और तर्क का समर्थक था। जब वह गाँव वापस आया, तो उसने देखा कि लोग अंधविश्वास के कारण अपने जीवन की कठिनाइयों का समाधान खोजने के बजाय, अपनी समस्याओं को और भी जटिल बना रहे हैं। उसने गाँव वालों से बात करने का फैसला किया, लेकिन उसकी बातें किसी ने नहीं सुनीं। लोग उसे नास्तिक तक कहने लगेऔर उससे बात करना गलत समझने लगे। राजेंद को यह बात अच्छी नही लगती।
एक दिन, किसी स्थान पर बाबा के प्रवचन में बड़ी भगदड़ मच गई। बाबा के सत्संग में भारी भीड़ जमा हो गई थी, और भगदड़ में कई लोग घायल हो गए। गाँव का माहौल दुखद था। राजेन्द्र ने इस घटना को एक अवसर के रूप में देखा और उसने गाँव के लोगों को इकट्ठा किया। उसने अपनी बात एक कहानी के माध्यम से बताने का निर्णय लिया।
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एक बार की बात है, हिमालय की गोद में बसे एक छोटे से गाँव में एक बहुत ही ज्ञानी और आध्यात्मिक बाबा रहा करते थे। उनका नाम था संत सुबोधनंद। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कोई चमत्कार नहीं किया, बल्कि लोगों को आत्मज्ञान और स्वावलंबन का मार्ग दिखाया। उनके सत्संग में लोग बड़ी संख्या में आते थे, लेकिन वे कभी भीड़ में बदलते नहीं थे। संत सुबोधनंद हमेशा अपने शिष्यों को यह सिखाते थे कि भक्ति और तर्क एक दूसरे के पूरक हैं। प्रार्थनाओं में शक्ति होती है लेकिन सिर्फ प्रार्थना करने से कार्य पूर्ण नही होते, इंसान को अपने विवेक से कुछ कार्य भी करने होते हैं। तर्क पूर्ण कार्य जीवन में सफलता प्रदान कराने में सहायक होते हैं। और अंधविश्वास हमे पतन की ओर ले जाता हैं जिससे इंसान को बचने का प्रयास करना चाहिए।
एक दिन, गाँव में एक बड़ी समस्या आई। गाँव का जल स्रोत सूख गया और फसलों की हालत बिगड़ने लगी। लोग परेशान होकर संत सुबोधनंद के पास पहुंचे और उनसे समाधान मांगने लगे। संत ने सभी को शांत किया और कहा, "भक्तों, भगवान ने हमें विवेक दिया है। हमें अपने दिमाग का उपयोग करना चाहिए और इस समस्या का समाधान खुद खोजना चाहिए।"भगवान भी तभी साथ देगा जब आप सभी अपने विवेक से कुछ करोगे।
संत ने गाँव के पढ़े-लिखे युवाओं को इकट्ठा किया और उनसे जल स्रोत को खोजने और उसे पुनर्जीवित करने का मार्ग दिखाया। हरी भरी प्रकृति कर और धरती में जल भंडारण से संबंधित व्यवस्थाओं से युवाओं ने विज्ञान और तर्क का इस्तेमाल करते हुए एक नई जल व्यवस्था बनाई, और फिर गांव में जल की समस्या दूर हुई जिससे गाँव के लोग फिर से खुशहाल हो गए।
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राजेन्द्र ने गाँव वालों से कहा, "हमारे संत सुबोधनंद की तरह, हमें भी अपनी समस्याओं का समाधान खुद खोजने का प्रयास करना चाहिए। हमें भक्ति और विवेक दोनों का संतुलन बनाकर चलना चाहिए। अंधविश्वास की जंजीरों से मुक्त होकर ही हम अपने जीवन को सही दिशा में ले जा सकते हैं।"
गाँव वालों ने राजेन्द्र की बात समझी। उन्होंने बाबा या किसी प्रवचन करने वाले आदमी की अंधभक्ति छोड़कर अपने विवेक और तर्क का इस्तेमाल करना शुरू किया। उन्होंने महसूस किया कि सच्ची भक्ति वही है जो हमें विनम्र और स्वतंत्र बनाती है, न कि अंधविश्वास की जंजीरों में बाँधती है।
इस तरह, सुदर्शनपुर के लोग अपने जीवन में विवेक और भक्ति का संतुलन बनाकर खुशहाल और स्वतंत्र जीवन जीने लगे। और राजेन्द्र, अपनी सोच और तर्क के साथ, गाँव का मार्गदर्शक बन गया, जिसने सबको अंधविश्वास की जंजीरों से मुक्त किया।
हम सभी को भी चाहिए कि हम अपने जीवन में अपने विवेक और तर्क का उपयोग करते हुऐ उन बातों को समझे और अंधविश्वास की जंजीरों से मुक्त होकर प्रकृति रूपी शक्ति की आराधना करे। और उस शक्ति का धन्यवाद करे जिसने हमे जीवन दिया। और यह हरी भरी धरती और प्रकृति दी है उसकी रक्षा करे उसकी देखभाल करें।
धन्यवाद
राणा संस्कृति मंजूषा की प्रस्तुती
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