डकैतों का आतंक और राणा थारू समाज की गाथा( सच्ची घटनाओं पर आधारित बड़े बुजुर्गो की स्मृतियों से सहेजी गई कहानी)

डकैतों का आतंक और राणा थारू समाज की गाथा
Written and Published by Naveen Singh Rana 

आज से लगभग एक सदी पहले, राणा थारू समाज के गांव समृद्धि और खुशहाली से परिपूर्ण थे। उन दिनों यह समाज अपने धान के खेतों, घने जंगलों और अनमोल प्राकृतिक संसाधनों, पशु पालन से होने वाली चांदी के सिक्कों की आय के लिए प्रसिद्ध हुआ करता था। यह धनी और संपन्न गांव डकैतों के लिए एक आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे, ये डकैत रात के अंधेरे में अक्सर गांव के सबसे धनी परिवारों पर धावा बोलते और सभी सद्स्यों को कब्जे में लेकर घर का सारा खजाना लूट ले जाया करते थे, अंग्रेजो का जमाना था लेकिन तराई के घने जंगलों तक अंग्रेज़ी सेना का आसानी से पहुंच पाना संभव न था। और हमारे लोगो के पास सिर्फ लाठी डंडे या भाले ही हुआ करते थे, और डाकू बंदूक के आगे सभी को भयभीत कर दिया करते थे।

      एक गांव धन समृद्धि से पूर्ण था जिसका  मुखिया, राजपूत बलदेव सिंह राणा अपनी सूझबूझ और नेतृत्व क्षमता के लिए जाना जाता था। उनके नेतृत्व में गांव के लोग एकजुट थे और अपने गांव की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। लेकिन डकैतों की संख्या और ताकत दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी जिसके आगे उन सभी का टिक पाना संभव न था।

       रात के अंधेरे में, जब पूरा गांव नींद में होता, तब डकैत अपने हमले करते। वे गांव की संपत्ति लूटते, महिलाओं और बच्चों को भयभीत करते, और गांव वालों को मारते-पीटते थे। डकैतों के इस आतंक से गांव के लोग धीरे-धीरे अपने घर और जमीन छोड़कर अन्यत्र बसने लगे। 

    इस कठिन समय में राजपूत बलदेव सिंह राणा ने गांव वालों को एकजुट करने की कोशिश की। उन्होंने लोगों से कहा, "हमारा गांव हमारी जान है। हम इसे ऐसे नहीं छोड़ सकते। हमें एकजुट होकर इन डकैतों का सामना करना होगा।" क्योंकि भय से बार बार पलायन करना जिन्दगी को नरक बनाना जैसा था।

    गांव के युवा और बुजुर्ग सभी ने ठानी कि वे अपने गांव की रक्षा करेंगे। उन्होंने रणनीति बनाई, रात को पहरेदारी बढ़ाई और डकैतों से मुकाबला करने के लिए अपने हथियारों को तैयार रखा। 

     एक दिन डकैतों का एक बड़ा समूह गांव पर हमला करने आया। गांव वालों ने पूरी बहादुरी और सूझबूझ के साथ उनका सामना किया। कई घंटे तक चली लड़ाई में राजपूत बलदेव सिंहराणा और उनके साथियों ने डकैतों को परास्त किया। इस जीत के बाद गांव के लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने यह ठान लिया कि अब वे अपने गांव को छोड़कर नहीं जाएंगे। 

     लेकिन डकैतों का आतंक यहीं खत्म नहीं हुआ। वे बार-बार हमला करते रहे। गांव वालों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी और वे पास के गांवों में बसने लगे। हर बार जब वे एक नई जगह बसते, डकैत वहां भी पहुंच जाते। यह क्रम कई सालों तक चलता रहा। 

     राणा थारू समाज के लोग इस संकट से लड़ते-लड़ते एक जगह से दूसरी जगह बसते रहे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनका संघर्ष, उनकी बहादुरी और उनके गांव के प्रति उनका प्यार आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बन गया। 

    सालों बाद, जब डकैतों का आतंक कम हुआ और समाज में शांति का माहौल बना, तो राणा थारू समाज के लोग फिर से अपने पुराने गांवों में लौटने लगे। उन्होंने अपनी जमीनों को फिर से बसाया, खेतों में फसलें उगाई, और अपने गांवों को फिर से समृद्धि की ओर ले गए। लेकिन इस पलायन ने राणा समाज के गांव की हजारों एकड़ जमीन गवां दी, जिसमे अलग अलग जगहों से आए लोगों ने कब्जा कर लिया।

     राणा थारू समाज की यह कहानी संघर्ष, बहादुरी और अपने गांव के प्रति अटूट प्रेम की एक अमर गाथा है, जो हमें सिखाती है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी विकट क्यों न हों, अगर हम एकजुट होकर लड़ें, तो किसी भी संकट को मात दे सकते हैं। यदि आज हमारे समाज के लोगों के पास जो भी जमीन बची है यह उन बुजुर्गो की मेहनत का ही फल था अन्यथा यह जमीन भी हमारे पास नही होती। अब जरूरत है इस अमूल्य धरोहर को सहेजकर रखने की। ताकि अगली पीढ़ी को हस्तांतरित कर सके।
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