राणा समाज और उनकी उच्च संस्कृति written by shrimati pushpa Rana
Published by Naveen Singh Rana
""राणा समाज और उनकी उच्च संस्कृति ""
श्रीमती पुष्पा राणा जी की कलम से लिखित
1:राणा राजपूतों का तराई क्षेत्र में विस्थापन:
मैं आज पुन: भाव विभोर हूं जब अपने पिता पर पितामह की जीवन शैली पर एक नजर डालकर उनका विश्लेषण करती हूं राणा समाज के जीवन शैली हर तरह से शाश्वत सनातनी जीवन मूल्य पर आधारित थी। संभवत: इन्ही सार्वभौमिक जीवन मूल्यों को आत्मसात करके उन्हें अपने जीवन का आधार बनाना ही एकमात्र महत्वपूर्ण कारक रहा होगा जो विषम परिस्थितियों में राजस्थान से एक ऐसे दुरुह स्थान पर विस्थापित होने को मजबूर हुआ हमारा राणा समाज, जहां कदम कदम पर प्रकृति जीवन के अस्तित्व को चुनौती देती प्रतीत होती थी ।यह जो तराई क्षेत्र है ,तब घने जंगलों से आच्छादित था और जौरा साल जैसे जंगल जहां सूर्य की रोशनी तक नहीं पहुंचती थी। लगातार वारिस से तर रहने के कारण ही इस क्षेत्र का नाम तराई पड़ा ।यहां की उष्ण नाम न् जलवायु कीटाणु, बिषाणु तथा जहरीले सांप बिच्छुओं को पनपने के लिए एकदम मुफीद थी। ऐसी विषैली जलवायु में संसाधन हीन विस्थापित लोगों का ,जीवन के लिए संघर्ष कितना कठिन रहा होगा यह आज हम सुविधा भोगी परिस्थितियों में कल्पना भी नहीं कर सकते। समय समय पर है कालाजार ,मोतीझरा मलेरिया,हैजा,चेचक जैसी भयानक विषाणु जनित महामारी पूरे क्षेत्र में इस कदर विकराल रूप से फैल जाती थी कि गांव का गांव खाली कर देने के लिए बाध्य होना पड़ता था। इतिहासकारों ने पक्षपात पूर्ण लिखा कि राणा घुमंतु जाती है । दो वर्ष पूर्व कोरोना महामारी का स्मरण करिए की कैसे जीवन के लिए संघर्ष इस कदर बढ़ गया था कि सरकार को संपूर्ण लॉकडाउन महीनों तक लगाना पड़ा ।आर्थिक, सामाजिक , राजनीतिक तथा यहां तक की आध्यात्मिक गतिविधियां पूर्ण तरह से रोक दी गई थी ।उन पर विराम लग चुका था ।जहां व्यक्ति शरण लेता था ईश्वर का वह दर - मंदिर गिरजाघर ,मस्जिद तक के कपाट बंद कर दिए गए थे । कोरोना के डर से लोगों ने मृतक संस्कार जैसे सामाजिक भागीदारी वाले अत्यावश्यक अवसर पर जाने से पूर्ण परहेज किया ।घर वालों ने मृतक का शरीर लेने तक से मना कर दिया। ईश्वर ने जरा सी भृकुटी क्या टेढ़ी की कि समाज की हर मान्यताएं अपनापन नाते, रिश्तेदारी , सहयोग की भावना एक-एक कर धराशाई होने लगीं ।ईश्वर के अस्तित्व से तथा नैतिकता से मनुष्य का विश्वास टूटने सा लगा ।सभी को अपने प्राणों की चिंता थी ।मैंने इस समय कल को प्रसंग बस इसलिए उद्धृत किया है कि जब प्राणों पर संकट होता है तो जीवन की हर मूल्य दांव पर लग जाते हैं ।कुछ ऐसे ही विकट समय, परिस्थितियों से हमारा राणा समाज सैकड़ो वर्षों तक अकेला संघर्ष करता रहा ।सन 1974 से पूर्व यहां आबादी का घनत्व ऐसा नहीं था ।कुमाऊं में चंद्र राजाओं के शासनकाल में जब मुगलों ने तराई पर आक्रमण किया तो राजा ने नीलू कठायत नाम के अपने मंत्री को मुगलों से मोर्चा लेनेके लिए युद्ध अभियान पर तराई में भेजा ।वह अपने अभियान में सफल भी रहा और राजा से अच्छे पुरस्कार की उम्मीद लगाए बैठा था ।परंतु उसके विरोधियों ने राजा के कान भरते हुए सलाह दी कि नीलू तराई फतह करके आया है और यह न्याय संगत होगा कि इसे तराई प्रदेश का ही जागीरदार बना दिया जाए। राजा ने जब नीलू कठायत को तराई का जागीरदार बनाने का हुक्म जारी किया तो नीलू आग बबूला हो उठा कि मेरे अच्छे कार्यों का यह पुरस्कार है या दंड है।तराई में स्थाई रूप से बसने का मतलब था प्राणों पर संकट। काला पानी की सजा जैसी थी। नीलू ने विरोध स्वरूप राजा पर आक्रमण कर दिया ।उसके दोनों बच्चों की आंखें निकलवा राजा ने मरवा दिया और अंततः नीलू भी इस संघर्ष में मारा गया। साथियों इतना मुश्किल था इस क्षेत्र में अस्तित्व रक्षा जहां का राजा तक बनना। किसी को स्वीकार नहीं था।
2:तराई क्षेत्र में बड़ी संख्या में शरणार्थियों को बसाया जाना:
अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ वस यहां की वन संपदा का उपयोग किया। साल वृक्ष से परिपूर्ण वनों को काटना शुरू किया गया और यहां तक की प्रसिद्ध इमारती लकड़ियों को अपने देश तक पहुंचाया ।बड़े स्तर पर जंगलों की कटान शुरू की गई जंगलों के कम होते क्षेत्रफल से बारिश उतनी नहीं होने लगी और जीवन तो कुछ हद तक आसान हुआ, दूसरी ओर जब हमारा देश भारत आजाद हुआ तो दो समस्याएं मुख्य रूप से सामने आई। एक तो मुल्क के बंटवारे के कारण पाकिस्तान से विस्थापित जन समूह को विस्थापित करना और रोजगार मुहैया कराना।इन विस्थापितों को बड़े स्तर पर तराई में बसाया गया। प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध में हताहत भारतीय सैनिकों के निराश्रित परिवारों को भी इसी तरह तराई क्षेत्र में बसाने का निर्णय लिया गया और पाकिस्तान तथा बांग्लादेश का जब बटवारा हुआ तो एक बार पुनः बड़ी संख्या में बांग्लादेशी विस्थापितों को इस तरह क्षेत्र में बसाया गया ।
3:तराई में मलेरिया उन्मूलन का अभियान और राणा समुदाय पर इसका प्रभाव:
सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व स्वास्थ्य संगठन की सहायता से तराई में 1973 -74 के आसपास मलेरिया उन्मूलन का सघन अभियान चलाया ।हम लोग बहुत छोटे थे तो मां लोग पूरा घर खाली कर दिया करते थीं। सामानों को चटाई इत्यादि से ढक दिया जाता था ताकि सरकार की नुमांनदे मलेरिया रोधी डीडीटी का छिड़काव पूरे घर में आसानी से कर सकें। इस अभियान के बाद तराई क्षेत्र मलेरिया जैसी बीमारी से लगभग निजात पा चुका था ।जनसंख्या का मिश्रण हो चुका था क्षेत्र अब जीने लायक वातावरण में परिवर्तित हो चुका था ।़बाहर से आए लोगों की महत्वाकांक्षा हिलोरे मारने लगी थी ।प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक से अधिक कब्जा करने की प्रवृत्ति इन विस्थापितों में जोर पकड़ने लगी ।हमारा राणा समाज अपने उन्ही आदिकाल से चला चली आ रही सनातन सत्य पर आधारित जीवन मूल्य पर अडिग रहा और अपनी इसी पहचान के कारण आदिवासी अर्थात आधुनिक समाज में विकसित हो रहे प्रपंच से दूर पिछड़ा कहलाया ।एक बार जब लोगों ने आपको आदिम, पुरातन पंथी और पिछड़ी आदिम जाति का टैग लगा दिया तो ऊंची सोच ,स्वयं पर गौरव, स्वाभिमान तथा उन्नति के लगभग सभी रास्ते प्रभावित होकर ग्राफ नीचे की तरफ बढ़ने लगा ।जैसा कि होता है जमाने में आपकी संस्कृति सभ्यता जीवन मूल्यों को आदिम कालीन बता कर हीन भावना महसूस कराया जाने लगा ।उसके हर गौरवपूर्ण संस्कार, संस्कृति, रिवाज आदिम साबित करने की इतिहासकारों में होड़ सी लग गई और अपनी वर्गीकृत श्रेणी के अनुसार समाज भी ऐसा ही मानने लगा।सरकार ने भले ही विशिष्ट वर्ग की श्रेणी "ट्राइब्स" आदिवासी में रखकर इस विशेष संस्कृति को संरक्षित करने का प्रावधान किया हो परंतु समाज का दृष्टिकोण इतना उदारवादी नहीं रहा । हमारा समाज स्वयम को क्षत्रिय वर्ग का मानता रहा है और यह सत्य भी है।वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के वंशज होने के नाते अपने नाम के आगे राणा ठाकुर पद भी लगातार प्रयोग करता रहा है ।वैसे तो इतिहासकारों ने इसकी चर्चा की है कि महा विनाशकारी हल्दीघाटी युद्ध के बाद 12 राजपूत राणा परिवार इस सुरक्षित जगह तराई में आकर बस गए थे ।क्योंकि इस क्षेत्र में मुगलों के बार-बार आक्रमण होते रहते थे और आसपास कुछ मुस्लिम आबादी बसी हुई थी ।तुर्का तिसौर , सितारगंज, कठंगरी आदि गांव इसी इसकी आज भी गवाही देते हैं ।संकट देख बड़े बुजुर्गों ने तय किया होगा कि अपनी पहचान और उजागर न करें ।इस समय जो यहां के पुराने वाशिंदे दे थे वह शरीफ लोग थे ।जिन्हें हम प््राणाओं की सात उपजातियां के रूप में गिनते हैं ।लेकिन ऐसा है नहीं ।स्कूल के कुछ रिकॉर्ड हमें हाथ लगे जिसमें हमारे राणा लोगों ने सन 1953- 54 तक अपने नाम के आगे राणा राजपूत लिखवाया था और बाकी सभी लोगों ने अपनी जाति राणा ना लिख कर वही जाती लिखवाई जिसका वह प्रतिनिधित्व करते थे ।इतिहासकारों ने बाद में सभी को एक जाति मान लिया ।लेकिन श्रीवास्तव ने सन 1956 54 के आसपास 3 वर्षों तक यहां का अध्ययन किया और बताया कि राणा एक सर्वोच्च जाती है जो स्वयं को राणा ठाकुर कहकर गर्व से भर जाते हैं ।यह संदर्भ इसलिए लिया जा रहा है कि हमारा राणा समाज अपने मूल को बिना किसी भ्रम के अच्छी तरह से जान सके। सभ्यताएं मिलती रहती हैं और एक दूसरे से संस्कृति वेशभूषा भाषा रीति रिवाज को मान्य एवं स्वीकार करने की प्रक्रिया भी निरंतर जारी रहती है ।क्योंकि एक क्षेत्र विशेष और आपसी संपर्क से ऐसा होना स्वाभाविक है ।
4:संस्कृति का सम्मिश्रण:
आज हमारी महिलाएं लंबा टीका और पिछौढ़ ओढ़ने लगी हैं जबकि पहले बिंदी लगाने का प्रचलन था और सामान्य तौर से अरघना जिसको हम उन्ना या ओढनिया कहते थे वह ओढ़ती थीं। जब कोई उत्सव होता था तो पूरी साड़ी की फुगती लगाती थी और उसमें चांदी का सुंदर सा घूघट सिलकर सलीके से आंचल लगाकर पहनती थीं।हमारे बड़े बुजुर्ग ज्यादातर पगड़ी बांधा करते थे और पर्वतीय पहनावे के प्रभाव में आकर टोपी पहनने लगे ।क्या पहनें ,क्या ना पहने ,यह व्यक्तिगत रुचि एवं सुविधा के अनुसार व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है लेकिन संस्कृति वेशभूषा, गहने इन सबका अपने अपने समाज में एक अलग महत्व होता है। उत्तराखंड की टोपी अलग हिमाचली अलग, महाराष्ट्रीयन अलग और मुसलमानों की अलग प्रकार की होती है। जब वह अपनी संस्कृति और सभ्यता को प्रदर्शित और प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं तो एक दूसरे के पैटर्न को नहीं अपनाते ।हम यह भूल जाते हैं ।कारण है कि हमारे समाज को लगता है कि हमारी संस्कृति वेशभूषा उतनी प्रसिद्ध नहीं है जो हम स्तरीय दिखा सके ।जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है ।इस तरह से संस्कृति पर संक्रमण होता है। जो समाज अपनी मूल संस्कृति का परित्याग किसी हीन भावना के चलते कर देता है वह अपने मूल पर ही कुठाराघात करता है ।मूल +जड़) के बिना तना आगे आधारहीन होकर ढह जाना तय है। लोग हंसते हैं कि हमारी नकल की जा रही है ।साथियों मूल प्रति और कॉपी की ही प्रति की वैल्यू आप सब अच्छे से जानते हैं। नकल प्रति काम चलाऊ होती है। ऐसा क्यों हुआ? चलिए इस पर विचार करें ।जैसा कि मैंने कहा कि हमारे बड़े बुजुर्ग प्रकृति एवं प्राण लेबा जलवायु से निरंतर अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहे ।उनका मुख्य उद्देश्य जीवित रहना रह गया था।अतः वे किसी भी गतिविधि में भाग नहीं ले सके जो उन्हें तथाकथित उन्नत समाज से जोड़े रखता। हमारा छोटा सा समूह था ।12 राणा राज परिवारों का अपना संगठन । जंगल साफ करके उसमें अन्न उपजाकर बच्चों के लिए 2 जून की रोटी की व्यवस्था की गई।अपनी पहचान छुपाते छुपाते अपना इतिहास लगभग खो दिया। गलती उनकी नहीं थी। परिस्थितियां ही तव ऐसी थीं।
5: राणा राजपूती खनक:
इस सब के बावजूद राजपूती खनक कम नहीं हुई .वह सारे गुण अभी पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हो रहे थे लेकिन उनका आकलन ईमानदारी से नहीं किया गया। कारण था, इतिहास अंकित करने वाले हमारे बीच के लोग नहीं थे ।मौखिक और व्यवहार में बहुत कुछ था लेकिन बिना ब्लैक एंड व्हाइट में अंकित उसकी उतनी महत्ता नहीं मानी गई ।महाराणा प्रताप जी की तरह हमारे बुजुर्गों में स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा था ।
१) दूसरे की चाकरी नहीं करूंगा
श्रीवास्तव और ब आंग्ल लिखकों ने भी लिखा है कि राणा से चाकरी कराना बहुत कठिन है ।व्यक्ति एक बीघा जमीन हासिल करने के लिए जान लगा देता था और यदि एक जोड़ी बैल और एक बीघा जमीन भी खेत वह जुटा लेता तो वह नौकर नहीं बनना पसंद करता था।
२) स्वाभिमान एवं साफ स्वच्छता पर विशेष जोर था ।बद्रीदत्त ने लिखा है कि यदि पंडित की छाया भी पानी के घड़े पर पड़ गई तो है घड़े का पानी पीना तो दूर बल्कि घड़ा फोड़ ही दिया जाता था ।स्वाभिमान और अपने अभिजात्य होने पर इतना गर्व था।
३) अपने राजपूती समाज से अलग अन्य किसी वर्ग के समाज से वैवाहिक संबंध पूर्णतया प्रतिबंधित थे। यदि मानव सुलभ प्रवृत्तियों के चलते किसी ने चोरी छुपे अंतरंग स संबंध बना किसी अन्य जाति से वना लिए हों तो उसका हुका पानी बंद करके समाज से पूर्णत: बहिष्कृत कर दिया जाता ।
था ।
४)सदा ईमानदारी पूर्वक सादा जीवन व्यतीत करने की प्रथा । लोग झूठ लगभग ना के बराबर बोलते थे ।अपराधी गतिविधियों में तो लिप्त ही नहीं थे ।देश आजाद होने के बाद के समय कल तक भी श्रीवास्तव ने मात्र तीन अपराधिक घटनाओं का जिक्र किया है। वह भी अन्य के खिलाफ विरोध स्वरूप घटित हुईं।
५ ) हमारे दादा परदादा राजपूतों की तरह चीते एवं जंगली सूअर ,हिरण आदि का शिकार करने की शौकीन थे ।पूरी टीम शिकारियों की बनाई जाती थी। शिकार को खेल कहा जाता था ।यदि खेल नहीं मिला तो पूरी टीम फिर से सघन अभियान में जुड़ती थी और तीन चार दिन तक लगातार जंगलों मेंहइसी तरीके से प्रयास किए जाते थे। तीन-चार चीते एक साथ ढेर करके ही अपना कौशल सिद्ध करती थीं। श्रीवास्तव ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। घर-घर में महाराणा की तरह कटार का प्रयोग किया जाता था। तलवार, बल्लम ,भाला दो नाली बंदूकें बहुतायत से पाई जाती थीं। गोल्डन बाउल को अनजाने में पीतल समझकर अज्ञानी हुई पीढ़ी ने कब कौड़ियों के दाम बेचकर नून खा लिया। हथियारों पर जंग क्या लगी ,बुद्धि विवेक पर भी जंग लग गई । स्वतंत्रता के नाम पर लोगों ने सरकारी नौकरियों को भी हमारे देखते-देखते लात मार दी थी। वह सही था या गलत इसका विश्लेषण फिर कभी होगा ।परंतु राणाओं ने अपने कृषि पेशा से जुड़े पेशों को अपनाने में गुरेज नहीं किया। पटवारी और शिक्षक की भूमिका निभाने में सफल रहे। इतिहासकारों ने लिखा है की तरह तराई प्रदेश में कुल पटवारियों में से 80% पटवारी राणा ठाकुर, बड़वायक एवं वट्ठा जाति से थे।
समाज में रुतबा का प्रतीक पधान ,मुस्तजार और ठेकेदार जो की एक तरह के जागीरदार थे अपने हलके के ।प्रधानी , मुस्तजारी तथा ठेकेदारी के पद भी केवल राणा ठाकुरों के ही पास थे ।इन सब से यह तो सिद्ध होता है कि स्वतंत्र शासक की भूमिका में राणा समाज अपने को राजपूती पहचान के अनुसार सुविधापूर्ण समझता था ।इतना होते हुए भी बाहरी दिखावा बिल्कुल नहीं था।गगरा भर चांदी के सिक्के ,हर स्त्री के पास डलवा भर व्यक्तिगत गहने होना कोई बहुत पुरानी बात नहीं है । शादी विवाह के अवसर पर रजपूती शान से दिल खोलकर खर्च करना भी देखने लायक था।राजपूत अपने गौरव से समझौता नहीं करते थे। स्त्रियों के चरित्र के बारे में श्रीवास्तव में लिखा है और मुझे भी बचपन की याद आ रही है कि जब बचपन में हम कैलाश नदी में या गांव के बड़े से तालाब में नहाने तथा कपड़ा धोने जाते थे तो महिलाएं दर्पण साथ ले जाती थीं। ऐसा इसलिए किया जाता था कि शादीशुदा महिलाएं चाहती थीं कि होने वाले बच्चे की शक्ल सूरत किसी अन्य व्यक्ति पर न जाए ।वह रजस्वला स्त्री जब रजोनिवृति के बाद स्नान करती थी तो सबसे पहले वस्त्र धारण करके अपना ही चेहरा दर्पण में देखती थी ।ताकि उसका होने वाला बच्चा उसी के गुण एवं शक्ल सूरत को धारण करें ।मां-बाप से भिन्न गुण वाले बच्चों के लिए अक्सर चिढ़ाते हुए कहा जाता है कि कौन की झांक पड़ी है ।मां-बाप इतने अच्छे हैं और बच्चा विपरीत गुण वाला है ।वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लोग इस पर सहमत नहीं होंगे की दर्पण में में छवि निहारने से गुण दोष थोड़ी सुनिश्चित होते हैं ।साथियो,विज्ञान प्रकृति के नियमों पर आधारित है ।आपके मन में जो विचार चल रहे होते हैं,वही आकार धारण करते हैं। आकाश में उड़ते पक्षियों को देखकर ही हवाई जहाज बनाने का विचार मन में उत्पन्न हुआ था। इसी प्रकार शरीर के चल रहे मनोभाव ही आपके शरीर में इस प्रकार के हारमोंस उत्पन्न करते हैं और पूरे शारीरिक तंत्र पर अपनी प्रक्रिया प्रकट करते हैं ।गाली सुनकर गुस्सा आता है। बीपी हाई होता है ।मुंह लाल हो जाता है ।शरीर जलने लगता है ।अच्छे मृदु वचन सुनकर मन आनंदित होता है ।पूरे शरीर में विश्रांति महसूस होती है ।विचार और शब्द हमारे पूरे जीवन और भौतिक शरीर को तथा अमूर्त मन को प्रभावित करते हैं। प्रक्रिया स्वरूप प्रणाम उन्ही मनोभावों के अनुकूल आते हैं ।प्रसंग का जिक्र इसलिए किया गया है की राजपूतानी जो अपने पति के अलावा पर पुरुष की छाया अपने ऊपर नहीं पड़ने देती थीं और जौहर जैसे विकल्प को चुनती थीं।पति के स्वर्गवासी हो जाने की आशंका मात्र से जौहर की ज्वाला में अपने भौतिक शरीर को जलाकर राख कर देती थी ।वही पतिव्रता भावना इस प्रसंग से समझी जा सकती है कि स्त्री पर पुरुष की छाया भी पड़ने से परहेज करती थी ।इतनी सच्चरित्र हमारी राणा समाज की बहू बेटियां हुआ करती थीं।राणा राजपूती संस्कृति जो 80 के दशक तक पूर्ण प्रभावी थी ।अब कहीं खो सी गई है ।राणा समाज के लोग जो एक बीघा जमीन के टुकड़े को हासिल करने में अपना जीवन दांव पर लगा देते थे ताकि स्वाभिमान से स्वतंत्र जीवन यापन कर सके ।और अब जमीन बेचने में भी लोगों को लज्जा नहीं आती।
6:उपसंहार:
श्रम करना बुरा नहीं है पर अपनी मां जैसी मेहनत से अर्जित की गई धरती मां को वेंच कर सड़कों में ,दूसरे के खेतों में,घरों में स्त्री पुरुष कम पैसे में हाड़ तोड़ मेहनत करके उनकी चाकरी करने में आनंदित हो रहे हैं। कभी शादी बिवाह के संबंध नाते रिशतेदारी जोड़ते समय पशुधन ,जमीन और चरित्र तीन बातों का विभिन्न स्रोतों से पता किया जाता था। परिवार भले ही आर्थिक रूप से कमजोर हो परंतु परिवार में पिछली कई पीढ़ियों में कोई बद चलनी का उदाहरण ना रहा हो ।पशुधन कितना है ,जमीन कितनी है यह पूछा जाता था। सौ सौ गायें हुआ करती थी और बढ़िया बैल बढ़िया खैला। यदि संयुक्त परिवार हो तो सोने में सुहाग । ३-४ पीढियां एक संयुक्त परिवार में रहती थी ।एक मुखिया ही घर चलाता था ।किस तरह का अनुशिसत जीवन रहा होगा ।एक-एक मटकिया (10 लीटर) तक मट्ठा गांव में बांट दिया जाता था ।हडिया भरकर( तीन-चार किलो) दही -दूध बायना में बांट दिया जाता था । उधर से बर्तन में चावल भर के आते थे ।होली में पूरा कुनबा (कुर्मा )और आधा गांव एक दूसरे के घर भोजन के लिए आमंत्रित होता था ।एक दूसरे के खेत में मदद देकर काम किया जाता था ।मजदूरी करना, मजदूरी लेना बेज्जती और शर्मनाक माना जाता था ।शाम को सारे मददगार (मद्दतेया) आनंदपूर्वक साथ में बढ़िया भोजन करते थे। उसना आलू की सब्जी और मसूर की बढ़िया दाल तथा भुनी हुई लाल मिर्च देना आदर सम्मान माना जाता था ।कभी-कभी सामर्थ्य के अनुसार मीट ,मछली भी परोसी जाती थी ।जीवन के उच्च मूल्य सामाजिक सहयोग एवं सहकारिता की भावना स्वच्छता स्वच्छता स्वाभिमान की भावना वाले समाज को क्या आदिम कहा जा सकता है। क्या यह सनातनी उत्कृष्ट गुण आदिम तथा जंगली होने की निशानी है ।और आज इन गुणों को लात मार कर ,तथा कथित आधुनिक एवं शिक्षित हमारी यह पीढ़ी गहराई से विचार करें कि आपके पूर्वजों ने क्या खोया था और आपने क्या खो दिया है।
सोचिये.….. फिर बैठकर चर्चा करेंगे।
पुष्पा राणा
नोट: श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा लिखित बेहतरीन राणा समाज का पुरातन इतिहास उनके द्वारा खोजे गए विभिन्न साक्ष्य यों के आधार पर तैयार किया गया है इसमें संपादन करते समय भूलबस यदि कोई त्रुटि हो गई हो तो क्षमा करें।
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घन्यवाद
Published by Naveen Singh Rana