**"राणा थारू समाज के पारंपरिक व्यंजन: सांस्कृतिक धरोहर की सुगंध और स्वाद"**by Naveen Singh Rana

**"राणा थारू समाज के पारंपरिक व्यंजन: सांस्कृतिक धरोहर की सुगंध और स्वाद"**
:नवीन सिंह राणा की कलम से 


        राणा थारू समाज की सांस्कृतिक धरोहर न केवल उनके परंपराओं और रीति-रिवाजों में बसती है, बल्कि उनके विशेष व्यंजनों में भी रची-बसी है। यह समाज अपनी पारंपरिक भोजन शैली के लिए प्रसिद्ध है, जो न केवल उनके खानपान के तरीकों को दर्शाती है, बल्कि उनके जीवनशैली, कृषि एमएम पद्धतियों और स्थानीय सामग्री के उपयोग को भी प्रदर्शित करती है। 

     राणा थारू समाज के व्यंजनों की सूची में से कई आज दुर्लभ होते जा रहे हैं, जबकि इनमें से प्रत्येक व्यंजन का अपना अनूठा स्वाद और महत्व है। बेसन के कतरे और सीओ और  पके कतरे की झोरी एक ऐसा ही व्यंजन है, जिसे विशेष अवसरों पर बनाया जाता है। बेसन को विशेष तरीके से तैयार कर, इसे सीओ या पके कतरे की झोरी भात के साथ परोसा जाता है, जो खाने में अत्यंत लजीज होता है। इसी तरह मिसोला, जो आनंदी चावल को भाप में पका कर तैयार करते हैं और उसमे गुड, सूखे मेवे, देशी घी आदि मिलाकर स्वाद को बेहतरीन बनाते हैं, जिसका सम्बन्ध बरोसी में  रखकर गरम किए गए दूध से बनी अति स्वादिष्ट दही के साथ परोसकर खाने से और बढ़ जाता है,जो सावन निद्या भादो के त्योहारों से जुड़ा है, अपने स्वाद और पारंपरिक महत्व के लिए जाना जाता है।

    धीससा फरा और लपसी भी राणा थारू समाज के महत्वपूर्ण व्यंजन हैं। धीससा फरा, चावल के आटे से बने छोटे-छोटे पकवान होते हैं, जिन्हें खास अवसरों पर बनाया जाता है। लपसी, जो कि दरदरी गेहूं और गुड़ से बनाई जाती है, शरीर को ऊर्जा प्रदान करती है और इसे विशेष रूप से त्यौहार के मौसम में तैयार किया जाता है।

कुथुआ रोटी, जुरिया रोटी, चीला रोटी, और गुलगुला जैसे व्यंजन समाज के दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। इन रोटियों को विभिन्न प्रकार के आटे और तरीकों से तैयार किया जाता है, जो हर खाने में नयापन और विविधता लाते हैं। अमचूरी और खटाई, जो खट्टे और मसालेदार स्वाद के लिए जानी जाती हैं, भोजन को और भी स्वादिष्ट बना देती हैं।

      इन सभी व्यंजनों की अपनी विशिष्टता और इतिहास है, जो राणा थारू समाज की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं। लेकिन आज के आधुनिक युग में, इनमें से कई व्यंजन विलुप्त होने के कगार पर हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं, जैसे बदलती जीवनशैली, आधुनिक खानपान की ओर रुझान और पारंपरिक विधियों का भूलना।

      हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इन परंपराओं और व्यंजनों को संरक्षित करें। इसके लिए हमें इन व्यंजनों को फिर से जीवित करने की आवश्यकता है। स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर इनके प्रचार-प्रसार के माध्यम से, हम न केवल इन व्यंजनों को बचा सकते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी अपनी समृद्ध विरासत से अवगत करा सकते हैं।

      विविधताओं से भरे इन व्यंजनों का संरक्षण और संवर्धन न केवल राणा थारू समाज की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करेगा, बल्कि यह पर्यावरण और स्वास्थ्य के प्रति हमारी जागरूकता को भी बढ़ाएगा। पारंपरिक व्यंजन आमतौर पर स्थानीय सामग्री से तैयार होते हैं, जो न केवल पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक भी होते हैं।

     इसलिए, आइए हम सभी मिलकर राणा थारू समाज के इन पारंपरिक व्यंजनों को संरक्षित करने और प्रचारित करने की दिशा में एक कदम बढ़ाएं। यह न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखेगा, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़े रखने का महत्वपूर्ण साधन भी बनेगा।
:नवीन सिंह राणा 
नोट: प्रस्तुत उद्धरण में राणा थारू समाज के कुछ व्यंजनों का जिक्र करने का प्रयास किया गया है यदि कुछ अन्य व्यंजनों के नाम भूल बस छूट गए हो तो आप कमेंट बॉक्स में जाकर कॉमेंट कर अवगत करा सकते है।धन्यवाद 

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