"बिकती धरती मां की गोद"composed by Naveen Singh Rana

Composed and Published by Naveen Singh Rana 

बिकती धरती मां की गोद 
धरती माँ की गोद से ,
बिछड़ते राणा किसान।
बिक रही है उनकी ज़मीन, 
बिछड़ रहे अरमान।।1।।

खेतों में खिलती थी जहाँ, 
हरियाली की कहानी।
आज बिकते हैं वे हिस्से, 
जैसे बिक रही जवानी।।2।।
पसीने से सींची थी जो धरा, 
दुखद वही बिक गई।
किसान की मेहनत मानो ,
एक धुंधली याद बन गई।।3।।

वो पेड़, वो पौधे,
 वो लहलहाती फसल की बयार।
सब छूट ते जा रहे
,रह गए बस सूने-से घर द्वार।।4।।

गाँव की गलियों में अब ,
सुनाई सी देती है तन्हाई।
धरोहर की इस बर्बादी ने अब
,हर आँख को है रुलाई।।5।।
कहाँ गया वो अपनापन,
 कहाँ अपनेपन की छाँव।
अपनी धरती को बेचकर खो रहा,
 सपनो सा अपना गाँव।।6।।

हर बूंद पसीने की, हर कण 
माटी का है पुकारता ।
धरती का दर्द, दिल में ,
एक टीस सी है मारता ।।7।।

आओ मिलकर ,
फिर से उठाएँ ये सवाल।
धरती माँ की रक्षा में,
 हम सब करें कमाल।।8।।

ना बेचो ये धरोहर, 
ना छीनो धरती मां का हक।
धरती माँ की सेवा में, 
तत्पर हों सब सच्चे बेशक।।9।।
धरती माँ की गोद को, 
फिर से हरा-भरा बनाएँ।
किसान की मेहनत को , 
सच्चे दिल से सजाएं।।10।।

धरती को बचाएं ,
नव युग कर रहा आह्वान।
समझ ले अन्तर्मन में,
हो जाएं सभी सावधान।।11।।
पाला है,पोषा है,
 है यह पुरखों का वरदान 
संभाल लो इसको,
होगातेरी पीढ़ियों पर अहसान।।12।।

Composed by Naveen Singh Rana 

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