मेरा परिचय मेरा इतिहास,:तीन भयावह जौहर और विस्थापन की व्यथा
Published by Naveen Singh Rana
मेरा परिचय मेरा इतिहास
(तीन भयावह जौहर और विस्थापन की व्यथा)
श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा रचित
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मैं वही हृदय में जिसके ।
घनीभूत पीड़ा है ।।
सहस्त्र घाव है हल्दीघाटी के ।
छलनी जिसका सीना है।।
कश्यप गोत्री सूर्यवंश है ।
मां ने यही बताया था ।।
मनु शतरूपा ने मिलकर ।
सृष्टि को पुनः रचाया था।।
दादा तेरे नृप दिलीप ने।
सिंह को निज देह खिलाया था ।।
प्राण जाए पर वचन न जाई।
ऐसा रघुवंश चलाया था।।
और कहूं क्या बेटा तुमसे ।
तेरे ही दादा हरिश्चंद्र ने ।।
सत का परचम लहराया था ।
वही सत्यवादी कहलाया था।।
वन -वन भटके राज त्याग कर।
" वनबासी" रामचंद्र कहलाया था ।।
तेरे ही दादा लव ने।
नगर लव कोट बसाया था।।
विस्मित सी मैं देख रही थी।
मां के आंचल में खेल रही थी।।
परी लोक की कहो कहानी ।
मां से फिर -फिर बोल रही थी।।
इक्ष्वाकु वंश से बारह राजा ।
किये राज अयोध्या में ।।
दिशा दक्षिण में किया गमन ।
विजयनगर में बसे मगन ।।
पुष्पावती और शिलादित्य ।
नगर बल्लभी के राजा ।।
सर्वनाश कर दिया मलिचछ ने ।
रह ना सकी सुखी प्रजा ।।
एक लिंड़ी महाकाल का ।
बप्पा दीवान बना था ।।
काल भी जिससे कंपता था।
वो सूर्यवंशी शौर्यवान बना था ।।
इतना कहते,रुक गई मां ।
मैं समझी कि सो गई मां ।।
चहुं ओर कुहासा छाया था ।
जलती ज्वाला में कूद गई मां ।।
सहमी सी मां के आंचल में ।
छुप- छुप कर मैं रोई थी ।।
पिघल उठी मां की ममता ।
थपकी दे कहने लगी कथा ।।
तेरे दादा गण लखन ने।
कुलदेवी को किया प्रसन्न।।
होम हो गयीं बारह पुस्तें।
मिला राज ऐसे अक्षुण्ण।।
घूमा पहिया काल चक्र का।
हुए हताहत उद्भट वीर।।
खिज्राबाद हुआ चित्तौड़ ।
नहीं सूझता था कोई तोड़।।
भरी हुंकार सिंह हमीर ने ।
लिया छीन फिर गढ़-चित्तौड़ ।।
कीर्ति स्तंभ गगन को चूमे
विश्वविजयी कुंभा सिरमौर।।
सहस्त्र जख्म थे अंग अंग में ।
ठहरा ना शत्रु सांगा के संग में ।।
भड़क उठी थी कटी बांह भी ।
दांत पीसकर भिड़ी जंग में ।।
कहते मां फिर हुई निढाल।
जली ज्वाला फिर विकराल ।।
शत्रु का ऐसा मायाजाल ।
मां कर्णां कूद गई बेहाल ।।
कालचक्र अनवरत चलता रहा ।
भाग्य यूं बनता बिगड़ता रहा ।।
तलवारें खिंचती खनकती रहीं।
कोहराम सा मचता रहा ।।
मां यूं सिसकती रही।
कंठ यूं रुंधता रहा।।
ओह! क्या् भाग्य है मेरा ।
मन में धुआं सा उठता रहा ।।
नारी बनी देश की शान।
मासूम पुत्र का दे बलिदान।।
गूंज उठा कर्तव्य गान।
ऐसी पन्ना धाय महान ।।
नींव रख दी त्याग की।
देकर बलि निज लाल की ।।
जन्म लेगा लाल फिर ।
जो रक्षा करेगा भाल की।।
घुप अंधेरा छा गया।
चित्तौड़ फिर जाता रहा ।।
वन चतुर्भुज लड़े देवगण ।
वैरी वक्त मां को खा गया ।।
हत् भाग्य ! मैं जीवित रही ।
कैसे कहूं कि आज मेरी मां नही ।।
रजवार चले फिर लेकर लाल
वन - पर्वत भटके बेहाल ।।
मां से मिला इतना विवरण।
आगे नहीं मुझे कुछ स्मरण।।।
हाय कैसी हैं व्यथा।
अभिमन्यु सी मेरी कथा।।
लोग करते हैं परिहास।
वतला तू अपना इतिहास।।
क्यों मिला तुझको बनवास
नहीं दीखता क्यों उजास।।
मुझे विश्वास है मां आएगी ।
फिर प्यार से थपकायेगी ।।
परी लोक सा मेरा बैभव।
गौरव वो बतलायेगी ।।
देखो ना मां आ गयी।
क्या क्या न वो वतला गयी।।
किस्सा अधूरा,कहानी अधूरी।
हो गयी लो आज पूरी।।
रचयिता-
श्रीमती पुष्पा राणा
"सिंह निवास" अमरपुरी कालोनी
इन्दिरा नगर
लखनऊ 226016
मोब. 9140090486