""बहु विकलांगता का जीवन, कितना कठिन और दुश्वार""


"बहु विकलांगता का जीवन, 
कितना कठिन और दुश्वार"
Composed by Naveen Singh Rana 
एक शरीर जिसमे बसी,
 कितनी पीड़ाएँ अपार।
बहु विकलांगता का जीवन, 
कितना कठिन और दुश्वार।।

चलने में अक्षम, 
हिलने में बाधा अपार।
हर कदम पर जैसे, 
हो काँटों का भार।।

आंखों में धुंधलापन, 
सुनने में असीम दर्द।
दुनिया की आवाजें, 
लगती हों जैसे बेअर्थ।।

हाथों में ताकत नहीं, 
हो पैरों में जान नहीं।
जीवन की हर चाहत,
 हो जैसे बेजान कहीं।।

दिल में उमड़ती भावनाएँ,
 पर अभिव्यक्त न हो पाए।
मन में बसे हजारों सपने, 
पर सब हकीकत से डर जाए।।

दर्द का ये अथाह सागर, 
अश्रु की बहती सहस्त्र धाराएं।
अस्त्र से हृदय को चीर,
मिटती मन से हजारोंआशाएं।।


हर दिन की लड़ती लड़ाई, 
खुद से और निरंतर जग से।
जीने की चाह है हरपल,
फिर भी न हटे मन और रग रग से।।

सपनों में उमंगों भरी उड़ान, 
पर जमीं पर बंधी बेड़ियाँ,
आशा की रोशनी में, 
बस दुखों की कंटीली झड़ियाँ।।

पर हिम्मत न हारता कभी,
मन का वो शूर वीर,
लड़ता है जीवन छन छन 
रखकर बिना किसी धीर।।

प्रेम और सहानुभूति, 
हो अगर सदा साथ में ।
जीवन की इस राह पर,
और हर बातो की बात में।।


दुखों का ये बवंडर, 
झेलता रहता है हर दिन,
पर मुस्कान की चमक, 
परमेश्वर न हो कभी कम।।

                : नवीन सिंह राणा 

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