ख्वाहिश नही मुझे....
प्रिय पाठकों आज आप सभी के समक्ष कुछ ऐसी चंद लाइनें प्रस्तुत कर रहा हूं जो। मशहूर शख्स द्वारा रचित ऐसी पंक्तियां हैं जो इन्हे पढ़ता है वो उन्हीं में सराबोर सा प्रतीत होता है। हर किसी से जुड़ी हुई हैं ये पंक्तियां। धन्य हैं महामहिम प्रेम चंद जी
_ख्वाहिश नहीं मुझे_
_मशहूर होने की,
_आप मुझे पहचानते हो_
_बस इतना ही काफी है._
_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_
_क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी_
_उसने उतना ही पहचाना मुझे._
_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है,_
_शामें कटती नहीं और_
_साल गुजरते चले जा रहें है._
_एक अजीब सी_
_दौड है ये जिन्दगी,_
_जीत जाओ तो कई_
_अपने पीछे छूट जाते हैं और_
_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं._
_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अकसर,_
_क्योंकि मुझे अपनी_
_औकात अच्छी लगती है._
_मैंने समंदर से_
_सीखा है जीने का सलीका,_
_चुपचाप से बहना और_
_अपनी मौज मे रेहना._
_ऐसा नहीं की मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है,_
_पर सच कहता हूँ_
_मुझमें कोई फरेब नहीं है._
_जल जाते है मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन,_
_क्यों की एक मुद्दत से मैंने,
.... न मोहब्बत बदली
और न दोस्त बदले हैं._
_एक घडी खरीदकर_
_हाथ मे क्या बांध ली_
_वक्त पीछे ही_
_पड गया मेरे._
_सोचा था घर बना कर_
_बैठुंगा सुकून से,_
_पर घर की जरूरतों ने_
_मुसाफिर बना डाला मुझे._
_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_
_बचपन वाला इतवार_
_अब नहीं आता._
_जीवन की भाग दौड मे_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_
_हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है._
_एक सवेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_
_और आज कई बार बिना मुस्कुराये_
_ही शाम हो जाती है._
_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते निभाते,_
_खुद को खो दिया हम ने_
_अपनों को पाते पाते._
_लोग केहते है_
_हम मुस्कुराते बहुत है,_
_और हम थक गए_
_दर्द छुपाते छुपाते._
_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_
_लापरवाह हूँ फिर भी_
_सब की परवाह करता हूँ._
_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_
_कुछ अनमोल लोगों से_
_रिश्ता रखता हूँ._
🙏👬👭👫👬 मुंशी प्रेमचंद जी की उस दौर में लिखी बहुत बेहतरीन कविता जो आज भी प्रासंगिक हैराणा थारू युवा जागृति समिति आप सभी पाठकों का हार्दिक स्वागत अभिनंदन करती है। आशा है आपको हमारी यह पोस्ट पसंद आयेगी।