राणा समाज में चराई का त्यौहार: एक नजर एक समझ


प्रिय पाठकों, नमस्कर और राम राम जैसा कि हम आपके ज्ञान वा जागरूकता को बढ़ाने के लिए समय समय पर नई नई पोस्ट लेकर आते हैं ताकि आप अपने राणा समाज की परम्परा, संस्कृत, ज्वलंत मुद्दे और बहुत सारी चीजे जान सके और उसे समझ सकें। इसी कडी में आज मैं आपको रूबरू करा रहा हूं राणा समाज की परम्परा से जुड़ी चराई त्यौहार से, जिसे शब्द बद्ध किया हमारी वरिष्ठ सद्स्य श्रीमती पुष्पा राणा जी ने, जो वर्तमान में केनरा बैंक लखनऊ में कार्यरत हैं और राणा समाज की खोती परंपरा, संस्कृति वा  स्वाभीमान हेतु अपनी रचनाएं करती रहती है प्रस्तुत है आज की प्रस्तुति श्री मति पुष्पा राणा जी की रचना।
प्रेषक 
नवीन सिंह राणा 

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

त्यौहार का परिचय 
चैत्र मास भारतीय नववर्ष के सुभागमन पर राणाओं द्वारा "चैत्र चराई उत्सव" के रुप मे प्रकृति का अभिनन्दन
चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से भारत वर्ष के महान राजा विक्रमादित्य के द्वारा प्रचलित विक्रमी संवत के अनुसार नवसंवत्सर का प्रारम्भ हो जाता है। भारतीय मनीषियों की सटीक गणितीय गणनाओं के आधार पर ज्योतिष शास्त्र का प्रतिपादन अकाट्य सत्य को दर्शाता है। सनातनी परम्परा पूर्णतः खगोलीय एवं प्राकृतिक परिवर्तन एवं विनियमों का पूर्णतया अनुसरण है।

वेग गति से सनासना कर चलती हवाएं मानों ब्रमाणड से सन्देश लेकर धरा पर दसों दिशाओं में ज़ोर ज़ोर से उद्घोष कर रही हों-पुराना वक्त बीत चला और आगे बहुत कुछ नया होने बाला है। वृक्ष यकायक ही अपने पुराने पत्तों को यथाशीघ्र परित्याग कर नर्म और मुलायम कोपलों से सजने लगते हैं।ठंड की मार से सुषुप्त पड़ी लताएं जो सूखकर मृतप्राय डंठल में परिवर्तित हो चुकी थीं,वो भी संदेशा पाकर अपनी पूरी शक्ति से जी उठती हैं और देखते ही देखते कोमल पत्ते, पुष्पों से उसका भी दामन भरकर खिलखिला उठता है।
बसन्त के आगमन मात्र से प्रकृति रंग विरंगे नवपरिधानों से जब संवर उठती है तो मनुष्य भी मोहित हो रंगों के आमोद प्रमोद में गोंता लगाने लगता है। फागुन का पूरा महीना फाग गाते एवं रंगों से खेलते कब निकल गया इसका पता ही नहीं चलता। पुष्पित पल्लवित प्रकृति में फलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। अधिकांशतः वृक्षों में मंजरी आने लगती है। फलों का राजा आम के तो कहने ही क्या।वह तो मानो बौरा (पागल) ही उठता है। आम्र मंजरियो की सुगंध चारों ओर फैले जाती है।अमिया जैसे ही बड़ी होती है।कोयल पंचम सुर में कुहु कुहु की रट लगाते मानो मतवाली हो पड़ी है।
प्रकृति जब नया कलेवर धारण करके पूर्णतः तैयार होकर द्वारे द्वारे दस्तक देती है तो पहले ही वसंत आगमन से खुशियों से झूमता गाता मानव इस नवीन चेतना को नववर्ष के रुप में घोषित करके विभिन्न नामों से उत्सव का आयोजन करता है और प्रकृति को अपना पालन कर्ता मानते हुए प्रकृति प्रदत्त नवान्न को हवि के रूप में हाथ जोड़कर अर्पित करता है।

प्रकृति के इस दया भाव से भाव विभोर मानव समाज नाचता गाता कहीं चराई उत्सव मनाता है तो कहीं,बिहू, उगादी, बैसाखी,पाइलों बायसौक,नवोबर्षो तो कहीं गुड़ी पड़वा तो कहीं गड़गौर पर्व के रुप में मनाता हुआ नतमस्तक हो प्रकृति की पूजा अर्चना के द्वारा आभार अभिव्यक्त करता है।
ये उत्सव भारतवर्ष में या यूं कहिए कि भारतीय उपमहाद्वीप में उपरोक्त विभिन्न नामों से मनाये जाते हैं और सबकी विशेषता यही है कि ये चैत्र मास से लेकर बैशाख मास तक मनाये जाते हैं ये उत्सव श्रृष्टि के रचयिता तथा आदि शक्ति भवानी के किसी न किसी रुप को समर्पित किये जाते हैं और नव अन्न, पुष्प फल आदि भेंट करके जगत कल्याण की कामना की जाती है।

त्यौहार का पुरातन इतिहास 
हम बात करें ऐसे ही एक विशिष्ट त्योहार "चराई " की जो उत्तराखंड के तराई भू-भाग में वसने बाले राणा ठाकुर समुदाय के द्वारा आज से लगभग चालीस वर्ष पहले तक बड़े धूम-धाम से मनाया जाता था। आज की युवा पीढ़ी जो स्वयं ज्यादा सुशिक्षित मानती है,ऐसे त्योहार जो इतिहास बन चुके हैं उसके बारे में न तो जानती है और न ही जानने को उत्सुक है।उनका नजरिया है जो वर्तमान है वही सब कुछ है। अपनी संस्कृति और इतिहास के प्रति इतनी उदासीनता और अनिच्छा हमने अन्य किसी और समाज के लोगों में नहीं देखी। क्या हम अनदेखा कर सकते हैं कि सतह से ऊपर दिखाई दे रहे कंगूरे भवन की मजबूत नींव पर ही खड़े होकर इतरा रहे हैं। क्या यह जानना रोचक नहीं कि एक नन्हा बीज मिट्टी कीचड़ में इतना मिल गया कि स्वयं का अस्तित्व ही मिटा दिया उस एक दरख़्त को जन्म देने में। छोटी छोटी परमपराएं,तीज, त्योहार को मनाना,इसी तरह से संबंधित विकास के क्रम के प्रतीक हैं जो व्यक्ति और समाज को वृक्ष बनने की उस मार्मिक व्यथा और कथा को स्मरण कराता है।
राणा समाज जो अपने मूल को मेवाड़ की धरती राजपुताने से जोड़ता है।हम पाते हैं कि राजपुताने में गड़गौर उत्सव चैत्र प्रतिपदा से शुक्ल प्रतिपदा के तीसरे दिन तक मनाया जाता है जिसमें मां गौरी (भवानी) और ईश्वर (भगवान शिव) की पूजा की जाती है। सुहागन स्त्रियां मां गौरी की पूजा करती हैं और अपने लिए अविछिन्न सुहाग की कामना करती हैं।सभी एक बगीचे में एकत्र होकर मां के भजन गाती हैं।
यही परम्परा तराई के राणा कैसे निभाते थे यह जानकर आप अचंभित रह जायेंगे कि त्योहारों में इतनी समानताएं कैसे।

त्यौहार मनाने का तरीका 
राजपुताने की ही तरह तराई के राणा पंचायती राज प्रणाली को मजबूती से मानते थे। किसी भी दीवानी, फौजदारी एवं विभिन्न सामाजिक मामलों में पंच भैया जो निर्णय दें वही अन्तिम फैसला मान्य होता था।इस पंचायती राज प्रणाली की निम्नतम कड़ी थी गांव का प्रधान और गांव की कुशलक्षेम के लिए चुना गया गौंटरेया (भरारे )जो पूजा पाठ के द्वारा गांव में व्यवस्था बनाये रखता था। इन दो की सलाह के बिना गांव में पत्ता तक नहीं हिल सकता था।
गांव का प्रधान (मुखिया) और गौंटरेया मिलकर तय करते थे कि चैत्र शुक्ल पक्ष में उस गांव विशेष के लोग चराई उत्सव किस दिन मनायेंगे।
अधिकांशतः चराई शुक्ल पक्ष के चौथे दिन से मनायी जाती थी।
गांव की सारी महिलाएं मिलकर गांव की बाहय सीमा में स्थित भवानी के थान (भूइयां) को बढ़िया से लीप पोतकर तैयार करती थीं।
गांव में उस वर्ष जितनी भी शादियां लड़कों की हुई हों उन सबकी दुलहनों को पहली बार इस चराई उत्सव और भुइयां पूजन में आवश्यक रूप से ससुराल बुलाया जाता था। दुल्हन पहली बार ससुराल अपने विवाह में डोली में बैठकर आई थी और विवाह के बाद पहली वात लहड़ू (छोटे आकार की बैलगाड़ी) में बांस की खपच्चियों से अर्ध वृत्ताकार छत्ता बनाकर कपड़े से पूर्णतः ढककर (इसको ओहार तानना कहते थे) बन्द करके नगर से शिख तक सजी घूंघट में सफेद चादर (चदरिया कहते थे) ढकी सहमी सिसकती,ठिठकती दुल्हन जब ससुराल पहुंचती तो आस पड़ोस के की महिलाएं , बच्चे और मर्द सब बैठने आ जाते। बड़े कहते थे पांय लगवाया आयें और नयी बहुत के हाथ का पानी पी आयें तथा बच्चे नयी दुल्हन की एक झलक पाने की आश में तांक झांक करते थे पर बहुत तो घूंघट में होती थी।ऐसे में एक झलक पाना बहुत मुश्किल था।इसे पहलो‌ चालो (गौना) कहा जाता था ।राजपूतों में आज भी विदाई के समय दुल्हन को सफेद शॉल या चादर ओढ़ायी जाती है बहू के आते ही घर में सगे संबंधियों को बुलाकर और गांव के लोगों को बुलाकर के एक भोज का आयोजन किया जाता था ।बहू के हाथों से नल की पूजा कराई जाती थी और भोज के समय बहू परोसें गये भोजन में घी डालने का काम करती थी बड़े बुजुर्ग उन्हें आशीर्वाद के साथ भेंट में रुपए या कपड़े इत्यादि दिया करते थे नव बधू भेंट देने बाले को पुनः चरण स्पर्श करती थी।चराई वाले दिन बड़ी धूमधाम और उल्लास पूर्ण माहौल होता था सभी लोग विशेष कर महिलाएं नववधू और बच्चे एक बगीचे में जहां भवानी का थान(भुइयां )होता है वहीं पर पूजा एवं उत्सव को मनाने के लिए एकत्र होते थे। जिस घर में नव बधु आई है वहां पर पापड़ लपसी (मेवाड़ राजघराने में भी देवता को चढ़ाने के लिए तथा मेहमानों के लिए लपसी मुख्य पकवान माना गया है।नव वधू के ससुराल वाले पूरी गुलगुला लपसी ,मीठो भात (आनंदी चावल से पकाया जाता है),अमरस (आम की मीठा रसीला व्यंजन , चावल के आटे के भाप में पकाये एवं तेल में तले पापड़ सब्जी और अन्य भोज्य पदार्थ पकवान इतनी मात्रा में लेकर जाया जाता था कि सभी को थोड़ा-थोड़ा बांटते समय पूरा पड़ जाये। भोजन परस्पर वितरित करने को बैना देना कहते हैं।सभी लोग ऐसा ही करते थे। हर घर से लगभग पूरी पकवान लपसी इत्यादि एवं घड़ा भर पानी भी लेकर के साथ में लोग जाते थे । एक दूसरे से भोजन मिल बांटकर कर खाते थे ।सबसे पहले गौंटरेया और प्रधान जाकर भवानी माता की की पूजा करते थे ,भेंट प्रसाद ,हवन सामग्री के साथ गेहूं की वाले अलसी की वाले इत्यादि नवान्न को हवी के रूप में देकर के पूरे गांव की कुशलता की कामना की जाती थी । नवबधू भुइयां के पांय लाग कर आंचल से धोक लगाती थीं।इसके बाद सारे पुरुष छोटे बच्चों को छोड़कर वहां से हट जाते थे यह प्रोग्राम पूर्णतया महिलाओं का होता था जितनी भी नवबधू आई हैं वह सभी अब घूंघट में तो होती थी लेकिन सफेद चादर सिर से उतार देती थी और बड़े बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद लेती थीं। सामूहिक परिचय कराया जाता था कि यह बड़ी सास है यह काकी सास है ,यह दादी सास है, यह ननद है यह बड़ी नंद है ,यह पड़ोसन चाची है यह अम्मा (ताई सास)है इस तरीके से सारे रिश्ते नातों से परिचित कराया जाता था और गांव की महिलाएं भी बहू का मुंह देख पाते थे। खाना पीना होने के बाद में शुरू होता था संगीत का कार्यक्रम।ढोलक की थाप पर पूरे दिन भर गीत गाए जाते थे और यदि गलती से कोई पुरुष वहां से गुजरा तो चुहलबाजी में उसको व्यंग्य करते हुए गाली देने की प्रथा थी कि इधर क्यों आया है इधर दिखता नहीं सब बहुएं है, बच्चियां हैं और महिलाएं हैं। तुम्हारा यहां क्या काम है ऐसे हल्के-फुल्के मजाक चलते थे और शाम होते-होते एक मनोरंजक खेल का आयोजन होता था ।बगीचे से बाहर आते समय रास्ते में बेर के कांटे भरी टहनियों से अवरोधक बनाया जाता था।ये इस तरह से बिछाए जाते थे कि वह घुटनों से ऊपर तक ऊंचा हो जाए उसे विरझरा कहते थे ।उस बिरझरा को नव वधू दौड़ते हुये कूदकर पार करती थी और जो होशियार नंद होती थी वह अपनी नई नवेली भाभी की बारी में उन कांटों को फुर्ती से हटा देती थी ताकि उनकी भाभी आसानी से वहां से गुजार सके ऐसा हर ना वधू के साथ होता था और इसके बाद चुहलबाजी करते हुए सभी पहुंचते थे मुखिया के घर। मुखिया को नववधू के घर से गुड़ की भेली भेंट स्वरूप दी जाती थी और मुखिया की पत्नी (प्रधानी) मजाक करते हुए नववधू पर घड़ा भर पानी उड़ेल देती थी। यहां भी यदि ननद चुस्त हुई तो अपनी नई नवेली भाभी को फुर्ती से खींचते हुए वहां से हटा लेती थी ताकि उस पर पानी न पड़ सके और इस तरह से जो नई नवेली दुल्हन थी उसका शरमाना कुछ हद तक हद कम हो जाता था और लोगों से मेल जोड़ बढ़ने लगता था। नंद के साथ में भी उसकी यह जुगलबंदी रिश्तो को निभाने में बहुत कम आती थी। कोई दुल्हन कितनी स्मार्ट है यह विरझरा सफलतापूर्वक पार कर जाने में प्रदर्शित होता था। यह दुल्हन की खेल भावना को भी प्रदर्शित करता था यह त्यौहार एक तरह से सामाजिक ताने-बाने को बहुत ही सौहार्द पूर्ण वातावरण में बांधने का कार्य करता था लोग मिलजुल कर और मिल बांटकर खाना सीखते थे।

त्यौहार का समाज में महत्त्व 
चूंकि यह मुख्यतः नव वर्ष के आगमन की खुशी में मनाया जाता था और लोग चैत्र बैशाख भर इसे मनाते थे तो राणा समुदाय भी चैत्र और बैशाख में चराई मनाते थे।
समाज को एकता के सूत्र में पिरोने बाले ऐसे सामूहिक उत्सव पुनर्जीवित किये जाने चाहिए।
 दूर दराज लाखों रुपए खर्च करके बच्चों को टूर पर ले जाने से अच्छा है उन्हें अपनी माटी से जोड़ा जाये।एक बार एसी कमरों को छोड़ कर आम के घने बाग बगीचे में सामुहिक पिकनिक मना कर तो देखिए। बच्चे स्वयं संस्कारवान और समाज के हितों की रक्षा करना सीख जायेंगे। नयी पीढ़ी में पहले की तरह सामूहिकता की भावना जागृत होने से व्यक्ति का वृद्धावस्था का अकेलापन दूर हो जायेगा।
आइये हम सब अपनी संस्कृति को संरक्षित एवं संवर्धित करें।


पुष्पा राणा
लखनऊ

आशा है आप सभी को चराई से संबंधित जानकारी अच्छी लगी होगी। आपको यह जानकारी कैसी लगी या आप भी अपनी रोचक जानकारी हमारे ब्लाग में प्रसारित कराना चाहते हैं तो नीचे कमेंट बॉक्स में जाकर कॉमेंट कर सकते हैं।धन्यवाद
नवीन सिंह राणा 

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

राणा एकता मंच बरेली द्वारा अयोजित वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप सिंह जयंती कार्यक्रम published by Naveen Singh Rana

**"मेहनत और सफलता की यात्रा: हंसवाहिनी कोचिंग की कहानी"**

राणा समाज और उनकी उच्च संस्कृति written by shrimati pushpa Rana