कुछ भूली बिसरी यादें: संस्मरण खंड 1(नवीन सिंह राणा द्वारा लिखित)
नवीन सिंह राणा द्वारा लिखित संस्मरण
मेरे दादा जी की भूली बिसरी यादें
पूजनीय दादा जी भले ही आज इस दुनिया में नहीं है लेकिन आज भी हमारी स्मृतियों में हैं जीवन में हैं और हमारे परिवार के सदस्यों के रग रग में बसे हैं। उनके द्वारा जो भी सीख हमें बचपन से मिली, आज तक और जीवन पर्यन्त हमारे जीवन में मार्गदर्शिका की तरह राह दिखाती रहेगी।
हमारे दादा जी का जन्म स्वतंत्रता से पूर्व लगभग 1930 के दशक में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिताजी गांव नोगवनाथ बिसाउटा पट्टी के पधान थे और गांव के सभी कामकाज उन्हीं के द्वारा देखे जाते थे। उनका नाम था श्री कड़े सिंह, बहुत ही कठोर मिजाज के थे लेकिन न्याय देखो तो साक्षात न्याय के देवता। उस समय पधानो को गांव समाज में बहुत ही इज्जत दी जाती थी और उनके बहुत सारे अधिकार भी थे, वे ही गांव समाज की सुरकचा, देखभाल, भूमि के मुखिया हुआ करते थे।यदि कुछ ग़लत होता था तो उसका न्याय वे ही करते थे, यदि गांव में कोई नया परिवार आकर बसता था तो उसको रहने, खाने और जमीन की व्यवस्था पधन ही कराते थे और जब कोई परिवार किसी कारण से गांव छोड़कर जाता था तब उसके द्वारा छोड़ी गई जमीन पद्यान को ही सौंपी जाती थी। चाहें संस्कृति हो या कोई रीति रिवाज पधाण ही उसका सरंचक होता था, जिससे गांव समाज में व्यवस्थाएं बनी रहती थी, बालकों और युवाओं में संस्कार बने रहते थे और गांव में एकता बनी रहती थी।
मेरे दादा जी प्रेम सिंह अपने पिता जी के लहोर (छोटे )बेटे थे बड़े बेटे मुल्ली सिंह उनसे उम्र में काफी बड़े थे और एक उनकी एक बड़ी बहिन थी। जिस समय हमारे दादा जी का जन्म हुआ था उस समय खटीमा सितारगंज छेत्र में सिर्फ थारू समाज निवास करता था दूर दूर गांव हुआ करते थे और चारो तरफ घने जंगल ही जंगल हुआ करते थे। चोरों और डकैतों का बहुत भय हुआ करता था रास्ते कच्चे हुआ करते थे जिनमें बरसात के मौसम में चलना बड़ा मुश्किल हुआ करता था। पीने के लिए पानी की खासा दिक्कत हुआ करती थीं क्योंकि उस समय हैंड पंप नहीं हुआ करते थे इसलिए लोग पानी के लिए कुंआ या कुइंया बनवा लेते थे लेकिन गर्मी के मौसम में ये कुइन्या सूख जाते थे क्योंकि ये कम गहराई तक बने होते थे तो गांव वाले बड़े बड़े बरतनों में पानी भरकर लाडू छोटी सी बैल गाड़ी में रखकर लाते थे और फ़िर उसे एक जगह रख लेते थे जिसे लोग अटा कहते थे।
हमारे दादा जी कभी स्कूल नहीं गए, लेकिन उनको किताब प ढ ना अच्छी तरह से आता था लेकिन लिखना अच्छी तरह से नहीं आता था । लेकिन अपना हस्तकचर वे कर लेते थे। उस समय गांव में स्कूल ही नहीं हुआ करते थे, चार पांच किलोमीटर की दूरी पर बसे कुट रा गांव के मुखिया के घर पर लोग दूर दूर से पढ़ने आते थे यहीं से हमारे दादा जी ने कुछ पढ़ना लिखना का ज्ञान हासिल कर लिया था ,जिससे वे रामायण, विश्राम सागर, प्रेम सागर और अल्हा उदल की किताबें आसानी से पढ ना सीख गए थे। स्कूल खटीमा में हुआ करता था जो दस किलोमीटर कच्चे और घने जंगलों से घिरे रास्ते से आने जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी इसलिए इतनी दूर स्कूल में एडमिशन लेने की कोशिश भी उस समय लोग नहीं करते थे। और जो कोशिश कर पाते थे आठवीं से आगे की कोई व्यवस्था नहीं थी।
उस समय खेती बाड़ी और पशुपालन का दौर था हर घरों में बहुत सारी गोधन हुआ करती थीं जिन्हें जंगल में ही गहोड़ी बनाकर रखते थे हर परिवार में दो सौ तीन सौ गाय और बैल हुआ करते थे । गायों की संख्या ही घर की समृद्धि का द्योतक हुआ करती थी क्योंकि इनसे जो सांड होते थे वे चांदी के सिक्कों में बेंचे जाते थे और यही चांदी के सिक्कों से परिवार समृद्ध होते थे घरों में चासनी भर भर कर चांदी के सिक्के हुआ करते थे। साथ में गाय का घी व दूध आदि अच्छे स्वास्थ्य पोषण होता था । उस समय के लोग बहुत ही मजबूत और ताकतवर हुआ करते थे क्योंकि उनका खानपान प्रकृति की गोद में पल कर होता था जो शुद्ध और साफ होता था। लोग बचपन से ही कामों में लगे रहते थे इसलिए वे बहुत ही बलिष्ठ और मजबूत होते थे , ताकत इतनी होती थी कि अकेले ही घर के खूंटे उठा लेते थे जिनको आज कल के युवा हिला भी नहीं सकते। और हो भी क्यों ना , हमारे दादा जी बताते थे कि वे घी कभी चममच से नहीं लेते थे वरन एक सवा पाव ऐसे ही खा जाते थे, आम एक दो नहीं खाते थे पूरी बाल्टी भर आम चट कर जाते थे। तो ताकत क्यों न हो।
हमारे दादा जी बताते थे कि जब वे छोटे थे तब गांव में चार पांच परिवार ही हुआ करते थे। घर पहले तो घस फूस से बने होते थे फिर खपरैल की छते बनाई जाने लगी। दीवारें नरकुट या खरिया नामक घास से बना कर लीपाई कर बनाते थे लेकिन बहुत मजबूत होते थे। फिर इंटो का दौर आया तो पक्के घर भी बनाए जाने लगे। उस समय लकड़ी की कोई कमी नहीं थी इसलिए घरों में बहुत ही मजबूत खूंट बल्ली और डांसे लगे रहते थे vकिसी किसी घर में डबल छत पांड बनी रहती थी। अक्सर कई घरों को मिट्टी की मजबूत दीवारों से बनाते थे जिसे लोग मटर बोलते थे। कुछ लोग ऐसे पांड वाले घर बनाते थे जिसमे नीचे सामान या जानवर रखते थे और ऊपर खुद रहते थे एक बड़े मज़े की बात है कि उस समय घर में बिना दरवाजे वाले घर को बंगला बोला जाता था लेकिन आज के बनगला बोले जाने वाले घरों से वे बिल्कुल अलग हुआ करते थे इनका विशेष महत्व था आग तापने का काम, खाना खाने के लिए बैठने और घर के बड़े लोगों को सोने के लिए अक्सर यही स्थान नियत था।। जानवरों को बांधने के लिए जो स्थान बनाते थे उसे सार बोलते थे और उनके लिए भुस रखने के लिए भिसौरी बनाते थे। और उपले जिनको हमारे लोग कंडा कहते है रखने के लिए कन डोरी बोलते हैं।
हमारे दादा जी जब 18 बीस साल के रहें होंगे कि उनका विवाह हो गया और वे अपनी जिम्मेदारियों में बन्ध गए। पुराने समय में हमारे समाज में सादी विवाह का अलग ही रिवाज हुआ करता था बचपन में ही मंगनी हो जाया करती थी और धीरे धीरे इस रिश्तेदारी को मजबू त किया जाता था जब बच्चे कुछ बड़े हो जाते थे तब लड़के वाले लड़की वाले के घर डाली (जिसमे जलेबी के बड़े बड़े पैकेट छतिया मे रख कर) ले जाते थे और समधी समधी के रिश्ते को मजबूत और मीठा बनाते थे , कहीं ना कहीं ये रीति रिवाज आपसी सम्बन्धों को और अधिक मजबूत और सम्मानित बनाने का काम करते थे। बच्चे कुछ बड़े होते थे तब लगभग 10 से 12 वर्ष में सादी विवाह कर दिया जाता था लेकिन इस रस्म अदायगी से पहले और इस दौरान कई सारी रस्म अदायगी होती थी जिनमें कुछ रस्म अदायगी समय के साथ लुप्त हो गई और कुछ आज भी समाज में मौजूद हैं। इन्हीं रस्मो में
आगे जारी है......
राणा
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Published by Naveen Singh Rana