राणा थारू लोकगीत की विकास यात्रा (एक विस्तृत विवेचना)
राणा थारू लोकगीत की विकास यात्रा (एक विस्तृत विवेचना)
लेखक: नवीन सिंह राणा
थारू लोकगीत का है?........
थारू गांवन की गलियन से जब उठत तान,
मन को छू लेत हर एक गान।
बूढ़न की बातन मय बसो इतिहास ,
युवन को देत जओ खास प्रकाश।
राणा थारू पर्व-त्योहारन की जे शान,
हर हृदय के दर्द मय गात मुस्कान।
माँ की मीठी लोरीन, त्योहारन की बानी,
मृदंग संग कहत है मधुर कहानी।
थारू संस्कृति की अमिट पहचान,
हर जन मय जाको है बहु तै मान।
लोक के प्राण हैं, है जन की बात,
थारू लोकगीत जीवन को है रंग सजात।
प्रस्तावना:
राणा थारू समाज, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में निवास करने वाला एक प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध समुदाय है। उनकी संस्कृति की आत्मा उनके लोकगीतों में बसती है। राणा थारू लोकगीत न केवल मनोरंजन के साधन हैं, बल्कि वे इतिहास, परंपरा, सामाजिक संरचना, आस्था और जीवन मूल्यों के संवाहक भी हैं। समय के साथ इन लोकगीतों ने अनेक परिवर्तन देखे हैं – कभी कंठ से निकले सुरों में गूंजे, फिर सामूहिक गायन में ढले और अब मोबाइल-इंटरनेट के माध्यम से एक नई यात्रा पर हैं।
आदिकाल (परंपरागत काल): मौखिक परंपरा की नींव
1. मूल स्रोत:
राणा थारू लोकगीतों की उत्पत्ति मौखिक परंपरा से हुई। इन्हें बुज़ुर्ग महिलाओं व पुरुषों ने पीढ़ी दर पीढ़ी अगली पीढ़ी को सिखाया। लिखित शब्दों का अभाव था, लेकिन भावों और सुरों का संसार जीवंत था। बुजुर्ग लोगों में यह अदभुत क्षमता थी कि वे वेद, पुराण और अन्य ग्रंथों को पढ़कर या सुनकर उसका सार निकाल कर उससे कई तरह के गीतों की मौखिक रचना कर लेते थे और गाकर दूसरों को सुनाते थे । इस तरह धीरे धीरे वे गीत लोक गीत बनकर समस्त समाज का हिस्सा बन जाते थे। कुछ बुजुर्गों में यह अदभुत क्षमता होती थी कि वे किसी घटना का इस तरह से लय से गीतों में वर्णन करते थे कि वे गीत लोक गीत बनकर कर जन जन के जीवन के अंग बन जाते थे और यही धीरे धीरे अगली पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहा है।
2. गीतों की विषयवस्तु: सदियों से राणा थारू समाज के बुजुर्ग विभिन्न अवसरों में गीतों का निर्माण कर गाते थे। वे नदी, नाले, तालाब, बादल, मौसम, ऋतुएं, संबंध, संस्कार, विवाह, जन्म, मृत्यु,त्यौहार ,खेती, रिश्ते, देवी देवता स्तुति, इतिहास, वीरता आदि पर गीतों की रचना कर गाते थे। 1: जैसे एक हन्ना का गीत है नरई को नंदा….. खेलन गये कंजाबाग(किसी घटना का वर्णन है)
2: एक झी जी नृत्य गीत है दईले भौजईया गारी दईये तव ले है ( किसी घर में होने वाली आपसी तू तू मैं मैं का वर्णन किया है)
3: होली गीत इस प्रकार है कन्हैया होरी खेलेंगे हाथ मय लै रुमाल ( ग्रन्थ पर आधारित घटना पर गीत रचित किया गया है)
इस इस प्रकार राणा थारू समाज के विभिन्न लोकगीतों का निर्माण किया गया।
3. गायन की शैली: राणा थारू समाज एक ऐसा समाज है जो सदियों से समूह में रहता आया है और सामूहिक रूप से ही विभिन्न तरह के उत्सवों व अवसरों में मिलकर लोक गीतों को गाते हैं।
वे कुछ अवसरों में समूहों में बैठकर, वाद्ययंत्रों केसाथ व इनके बिना, तालियों की सहायता से लोक गीत गाकर मनोरंजन करते रहे हैं। ढोल, मजीरा, मृदंग, हार्मोनियम, तबला,बांसुरी, आदि प्रमुख वाद्य यंत्र के साथ गीतों की लय गाई जाती रही है। जैसे होली में बैठक होली, महिला होली, पुरुष होली, खिचड़ी होली, चराई के गीत, झी झी के गीत, हन्ना के गीत, नाच के गीत, स्वांग के गीत आदि सभी समूह में गाए जाने वाले गीत हैं।
राणा थारू समाज की महिलाओं की विशेष भूमिका लोक गीतों को आगे की पीढ़ी को हस्तांतरित करने में रही है इसलिए यदि उनको इस विरासत की संवाहक कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
।I. मध्यकाल (सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक विविधता का काल) राणा थारू समाज जो सदियों से विभिन्न तरह के उत्सवों और अवसरों में लोक गीतों के माध्यम से मन की भावनाओं को प्रदर्शित करते रहे हैं। खुशी के पलो में खुशी के गीत, नृत्य और दुःख के पलों में करुण भाव गीतों से झलकता रहा है। विरह और मिलन के गीत सावन के झूलों के गीतों में स्पष्ट नजर आता है।
1. गीतों का प्रसार: पुराने समय में विभिन्न अवसरों में वे चाहें धार्मिक मेला हों ,शादी समारोह हों या त्योहारों हों में गीतों के माध्यम से भावनाओं को प्रदर्शित करते थे। जैसे विभिन्न स्थानों पर लगने वाले धार्मिक मेलों में झन कईया का मेला, दस हरा का मेला, कैलाश नदी का मेला, उलझन का मेला आदि जहां पर वसई का मेला होता था लोग रात में भी स स्थान में निवास करते थे और मिलकर मनोरंजन हेतु विभिन्न तरह के लोकगीतों के माध्यम से समय बिताते थे।
2. विशेष गीतों का उद्भव: राणा थारू समाज में फागुन माह की होली के फाग गीत जो होली पर गाए जाने वाले रंग-बिरंगे गीत व बारहमास गाए जाते थे।
झूला गीत: महिलाओं द्वारा सावन में झूला झूलते हुए गाए जाने वाले गीत।
विवाह गीत: विवाह की प्रत्येक रस्म के लिए अलग गीत जैसे शादी विवाह में जब लड़का बारात लेकर घर वापस आता था तो महिलाएं सामूहिक रूप से मिलकर गीत गाती थी जैसे दूल्हा का दहेजो लानों रे…..।
इसी प्रकार अन्य गीत भी गाए जाते थे।
3. संरक्षण की चुनौतियाँ: राणा थारू समाज जिसमें सदियों से जो गीत गाए जाते रहे हैं वे मौखिक ही गाए जाते रहे हैं, लेकिन लेखन की परंपरा न होने से और नई पीढ़ी का इन गीतों के प्रति लगाव ना होने से उनमें रुचि कम लेने लगे एवं बड़े बुजुर्गों के इस जीवन से चले जाने से उनके साथ ही उनके द्वारा एकत्रित की गई विभिन्न तरह के गीत लुप्त हो गए। और बाहरी प्रभावों से भाषा और धुनों में बदलाव आने लगे।
III. आधुनिक काल (20वीं शताब्दी): लिप्यंतरण और मंचों पर प्रस्तुति का युग
1. लोक जागरूकता:
राणा थारू समाज में बहुत ही धीरे धीरे शिक्षा का विकास हुआ और 1980 और 90 के दशक में कुछ शिक्षित राणा थारू युवाओं ने बड़े बुजुर्गों से सुन सुन कर इन गीतों को लिखना शुरू किया। जिसमें कुछ सामाजिक संगठनों ने अपना योगदान दिया। और इन संगठनों ने गीत संग्रह करने की कोशिश की।
2. मंचीय प्रस्तुतियाँ: समय के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों, मेले, स्कूल प्रतियोगिताओं, स्थानीय मंचों पर राणा थारू लोकगीतों की प्रस्तुति होने लगी। जिससे इनका प्रचार प्रसार हुआ।पारंपरिक परिधानों के साथ नृत्य और गायन ने नए आकर्षण से राणा थारू संस्कृति का प्रचार हुआ। जिसमें गांव-गांव में सांस्कृतिक टीमों का गठन किया गया जो विभिन्न तरह के कार्यक्रम में उपस्थित होकर सांस्कृतिक झलकियां प्रस्तुत करते हैं।
IV. वर्तमान काल (21वीं शताब्दी): डिजिटलीकरण और चुनौतियाँ
1. सोशल मीडिया का प्रभाव: आज के दौर में यदि देखा जाए तो आज की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर गीतों को अपलोड कर देते हैं और लोगों द्वारा YouTube, Facebook, Instagram आदि पर राणा थारू लोकगीतों के वीडियो, ऑडियो और लाइव प्रस्तुतियाँ खूब देखी जा रही हैं। जिससे ऐसा लगता है कि आज के दौर में युवाओं की रुचि पुनः बढ़ी है, हालांकि नए पाश्चात्य संगीत का प्रभाव भी पड़ रहा है।
2. संश्लेषण का युग: आधुनिक समय में विभिन्न गांव में सांस्कृतिक टीमों का गठन किया गया है जो विभिन्न लोक गीत आधारित नृत्य में पारंपरिक धुनों में हारमोनियम, तबला, बांसुरी आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग कर रहे हैं। वहीं कुछ युवा कलाकारों द्वारा समय के साथ फ्यूजन कर नया प्रयोग भी कर रहे है।
3. संरक्षण के प्रयास:
आज के दौर में जब लोग गीत विलुप्त होने की कगार में है तब स्थानीय शिक्षक, साहित्यकार और जागरूक युवा समुदाय गीतों को संग्रह कर डिजिटल रूप में संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं कुछ विद्यालयों में ‘थारू गीत गाने’की पहल भी की जा रही है।
V. भविष्य की दिशा: क्या करना होगा?
1. लोकगीतों का लिप्यंतरण और दस्तावेजीकरण: यदि राणा थारू समाज के इन लोकगीतों का विकास करना है और उन्हें विलुप्त होने से बचाना है तो समाज के लोगों को मिलकर कुछ नए कदम उठाने होंगे जिस हेतु समाज के युवाओं को इसमें रुचि लेनी होगी और उन्हें आगे बढ़कर कार्य करने होंगे, हर ग्राम पंचायत स्तर पर गीत संग्रह परियोजन बनानी होगी।
बुज़ुर्गों के साक्षात्कार लेकर गीतों को शब्दबद्ध करनाहोगा। समाज के विभिन्न संगठनों के द्वारा लोकगीत लोक साहित्य व संस्कृति पर आधारित दो से चार दिनों की कार्यशालाओं का क्रियान्वयन भी करना होगा जिसमें समाज के विभिन्न युवक, किशोर प्रतिभाग कर अपनी संस्कृति, अपने लोकगीत और नृत्य की समझ विकसित कर सकेंगे।
2. विद्यालयी पाठ्यक्रम में समावेशन: राना थारू समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को इस हेतु कुछ प्रयास करने होंगे ताकि वे राणा थारू लोकगीतों की कविता और ध्वनि पहचान को शैक्षिक गतिविधियों में शामिल कर सकेंगे।
विभिन्न छुट्टियों में राणा थारु भाषा समर कैंप का आयोजन विद्यालय स्तर पर किया जाए जिसमें समाज के बच्चों को संस्कृति और लोक साहित्य, भाषा बोली की समझ विकसित करने हेतु प्रयास किए जाएं।
3. नवाचार और तकनीक: आज के दौर में जब पूरा समाज विज्ञान की नई टेक्नोलॉजी को समझने लगा है युवा लोग किस चीज में भारत हासिल करने लगे हैं तो इस समाज के लोगों और युवाओं को चाहिए कि वह इस टेक्नोलॉजी का पूरा लाभ उठाएं और मोबाइल ऐप या वेबसाइट बनाकर गीतों का संग्रह करे। साथ ही बुद्धिजीवी वर्ग को चाहिए कि वह लोककलाओं पर आधारित ई-कोर्स का निर्माण करें और जन-जन तक पहुंचाएं।
4. सामुदायिक प्रयास: विभिन्न गांव मे महिलाओं की मंडलियाँ बनाकर हर त्योहार पर गीत प्रस्तुतियों की परंपरा को बनाए रखा जाए।
आज की नई युवा पीढ़ी को मंच देना, प्रतियोगिताएँ आयोजित करना भी इसका हिस्सा होना चाहिए।
निष्कर्ष:
राणा थारू लोकगीतों की यात्रा इस समुदाय की आत्मा की यात्रा है। यह यात्रा एक गहरे भाव, परंपरा, और बदलते समय की कहानी है। आज आवश्यकता है कि हम इस अनमोल धरोहर को न केवल बचाएं, बल्कि नई पीढ़ी के माध्यम से और भी समृद्ध बनाएं। लोकगीत केवल सुरों की नहीं, संस्कारों और पहचान की भाषा हैं।
नोट: ऊपर दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो उसने अपने जीवन में अपने समाज को बहुत करीबी से देखा समझा और महसूस कर ज्ञान अर्जित किया कि लोकगीतों पर कोई लेख लिखे जाएं । समाज के लोगों से वार्तालाप कर उसने अपने विचारों को संजोने का प्रयास किया है जिसमें विरोधाभास भी हो सकता है। यदि किसी तरह का विरोधाभास उत्पन्न होता है तो वह उपरोक्त लेख में सुधार करने हेतु सहयोग प्रदान कर सकते हैं धन्यवाद
🖋️ नवीन सिंह राणा
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