राणा थारु विरासत की वह लौ जो बुझने नहीं दी जाएगी- लेख 🖋️ - नवीन सिंह राणा
राणा थारु विरासत की वह लौ जो बुझने नहीं दी जाएगी- लेख
🖋️नवीन सिंह राणा
पुरातन काल से भारत देश की अमृतमई वसुंधरा पर फैली विविधताओं की अनमोल माला में जनजातियां वे मोती हैं जो अपनी अनुपम परंपराओं, जीवन शैली और बोली से इस श्रृंगार को अद्वितीय बनाती हैं। इन्हीं में से एक है राणा थारू समाज । जो उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की तराई अंचलों में निवास करने वाला एक गौरवशाली समुदाय ,जिसने समय की आंधियों में भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों को न केवल थामें रखा है बल्कि उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी सहजा भी है ।इनका जीवन प्रकृति की गोद में पला बड़ा है।,जहां जंगल ,नदी ,मिट्टी और सुंदर ऋतुये जो केवल प्रकृति के तत्व ही नहीं वरन जीवन के सच्चे सहचर भी है।
राणा थारू समाज की हर सांस में लोक परंपरा की सुगंध रची बची है । उनके पारंपरिक गीत, उनके पारंपरिक नृत्य, उनके वेशभूषा,उनके पकवान ,भोज्य पदार्थ व उनके तीज त्यौहार इस बात का साक्षी हैं कि आधुनिकता के दौड़ते पहियों के नीचे भी जड़ों की आहट सुनी जा सकती है ।
आज जब संपूर्ण विश्व तेजी से वैश्वीकरण और तकनीकी की ओर अग्रसर हो रहा है, राणा थारू समाज एक जीवंत उदाहरण है इस जिजीविषा का ,जो अपनी विरासत की लौ को बुझने नहीं देती । यह उसी प्रकाश को शब्दों में समेटने का प्रयास है एक जीवंत, संघर्षील और आत्म गौरव से भरी संस्कृति का दस्तावेज।
राणा थारू समाज जो शताब्दियों से तराई की भूमि में जीवन को संजोए है, इनकी उत्पत्ति को लेकर कई मत हैं जिनमें कुछ में विरोधाभास तो कुछ में समानता है। कुछ विद्वान इतिहासकार राणा थारू समाज को थार के राजपूतों का वंशज मानते हैं जो मुगल आक्रमणों के समय में यहां से अपनी संस्कृति, अमूल्य परंपरा ,बहू बेटियों की आबरू और भावी पीढ़ी की सुरक्षा हेतु तराई की भूमि में विस्थापित हुए थे, इसके कई साक्ष्य आज भी मौजूद हैं । वहीं कुछ अन्य इतिहासकार अपने अलग-अलग मत रखते हैं। अब इतिहास के पन्ने चाहे जो कहे ,परंतु इतना निश्चित है कि उनके रीति रिवाज पहनावे और परंपराएं जो जीवंत हैं इन्हें अदुतीय बनाती है।
राणा थारू समाज का पहनावा ,उनकी सांस्कृतिक संपन्नता का जीवंत चित्रण है। उनके द्वारा पहने जाने वाले पुरुष परिधानों में कुर्ता ,पजामा ,धोती ,टोपी , मुंडेसो,लंगोट , झूलाकोट ,बास्कट , कटपोला, झगिया आदि पुराने समय में पुरुषों की शोभा बढ़ाते रहे हैं । वहीं महिलाएं घघरिया, अरघना , चदरिया, जम्फर, फूतही प्रमुख परिधान व विभिन्न आभूषण जैसे हंसलिया, खंडवा, बंकडा ,इमरती , कुठला , बांक,झुमका ,तिलरी ,हरवा ,तरपुरिया, छनने ,सकरी , जीवझीवी , कानफूल जैसे कीमती आभूषण संपन्नता और सौंदर्यता के प्रतीक रहे हैं ,जिन्हें आज भी देखा जा सकता है।
यह समाज खानपान व पारंपरिक व्यंजनों में भी संपन्न रहा है प्रकृति के संसाधनों के साथ तालमेल बैठाकर बनाकर राणा थारू समाज का भोजन अत्यंत पोषण युक्त और स्वादिष्ट होता है, दाल भात चखना (चावल दाल सब्जी )रोटी मुख्य भोजन है। जिसके साथ-साथ वे विभिन्न अवसरों में कतरा, फरा,गुलगुला, खुजरिया ,जुड़वा रोटी , कुथुआ रोटी ,लपसी , बरे, फिलोरे, हरिरा, सत्तू, पिटाउआ , अमचूरी आदि बड़े चाव से खाए जाते हैं तथा प्रसाद के रूप में भी घर के देवताओं में चढ़ाए जाते हैं । जो भले ही आज के समय में कम देखने को मिलते हैं लेकिन फिर भी बहुमूल्य पारंपरिक पकवानों के रूप में घर-घर में बनाए व खाए जाते हैं। राणा थारू समाज के पर्व व तीज त्यौहार केवल उत्सव नहीं बल्कि उनकी सांस्कृतिक की यादों के पुनर्जागरण के अवसर होते हैं। उनके फसलों से जुड़े अनुष्ठान हरैतो, पोया, हों या हन्ना झींझी, असाड़ी सवैया , चैत्र चराई हो या होली ,दिवाली, तीज, नाग पंचमी, कन्हैया आठे हो या देव पूजा के रूप में भुइयां पूजन, माघ की पूजा, बहरास पूजा, कथा , घरी ,मुंडन आदि अमूल्य धरोहर है जो पूरे समाज को आपस में जोड़कर सशक्त बनाने का कार्य करते हैं ।वही होली नृत्य , हन्ना नृत्य , झीझी नाच , स्वांग ,नचनिया नाच जीवन को और जीवंत व प्रफुल्लित करते हैं। और मृदंग, मंजीरा, और ढोल ढोलकी की थाप से संजोया जाता है। साथ ही में गाए जाते हैं विभिन्न तरह के लोकगीत ,जो लोक कथाओं ,धार्मिक ग्रंथो , पुराणों जैसे रामायण, महाभारत, प्रेमसागर, विश्राम सागर, सुखसागर आदि पर आधारित होते हैं जो इनकी धार्मिकता और ईश्वर के प्रति विश्वास को और मजबूत करते हैं। उनके प्रमुख इष्ट देव भुइयां देव, कुशमाठ देव ,कालू बर दिया देव ,बूढ़े बाबू देव , पर्वतीया देवी, कारो देव , गुल्लादेव , मुंडेरो , विसर देव आदि प्रमुख देव हैं जिन पर राणा थारू समाज की अटूटा आस्था है।
इस समाज ने जब से तराई की हरी भरी वादियों में अपना आश्रय बनाया है तब से जीवन यापन करने हेतु प्रकृति की गोद में ही वे साधन अपनाए जिनसे इनके जीवन को एक नई दिशा व दिशा
मिली । खेती के साथ-साथ पशुपालन करना जीवन के अभिन्न अंग बन गए, जहां खेती से विभिन्न तरह के अनाज जैसे गेहूं जई,चना ,मसूर, सरसों ,अलसी ,बाजरा, मक्का, कसो ,धान की विभिन्न किस्म राजभोग,अंजना, अनदी, बासमती, जया , चैनी, किसना , पंथचार, सु ईडी, चैनफोर, हंसराज इंद्रासन आदि उगाते और पशुपालन से वे खेती के लिए बैल ,दूध, घी, मठ्ठा आदि प्राप्त होता जो उनकी स्वस्थ और मजबूत जीवन शैली का द्योतक था। साथ ही बैलों के बेचने से प्राप्त आय से आर्थिक स्थिति भी मजबूत होती थी । जंगलों में उनके द्वारा बनाई गई गहोडी,जहां बड़ी संख्या में गायों को रखा व पाला जाता था ।गायों की संख्या से ही इनकी और उनके घर परिवार की समृद्धि मापी जाती थी ।कृषि में उपयोग किए जाने वाले विभिन्न तरह के कृषि यंत्र जैसे फ़ड़वा, लाडू, कठेला हर, जुआ , किलवाई, सकेला, पटेला व अखैन आदि का स्वयं निर्माण करते थे, जो इन्हें आत्मनिर्भर बनाते थे।
यदि बात करें इस समाज की भाषा बोली की तो यह हिंदी के बहुत ही करीब है ,जिसमें ब्रजभाषा ,अवधी भाषा का प्रभाव देखने को मिलता है ,तो कहीं-कहीं नेपाली भाषा के शब्द पाए जाते हैं। इसके बावजूद इसकी अपनी विशिष्टता है इसकी संरचना व लहजे में ,जिसे थारू बोली के रूप में जाना जाता है। यह बोली पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप में प्रचलित रही है जिसमें उन्होंने लोक कथा,एं दस्ताने, धार्मिक कथाएं ,होली गीत, खन्ना गीत, झीझीं गीत, विवाह के गीत आदि गाए जाते हैं और अगली पीढ़ी को मौखिक हस्तांतरित करते रहे हैं।लेकिन आज की नई पीढ़ी का झुकाव हिंदी व अंग्रेजी भाषा की ओर अधिक होने के कारण राणा थारु बोली का अस्तित्व संकट में है ।
बोली किसी भी समाज की आत्मा होती है उससे समाज की पहचान होती है इसलिए इस आत्मा को जीवित रखने के लिए राणा थारु बोली का संरक्षण अति आवश्यक है, ताकि आने वाली पीढ़ी विलुप्त होती बोली के शब्दों को समझें और संजोए रहे।
समय के साथ-साथ राणा थारू समाज ने उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ाया है, आज की नई पीढ़ी उच्च शिक्षा प्राप्त कर नए-नए रोजगार प्राप्त कर रही है । जिससे समाज में भले ही कुछ स्तर पर सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन हुआ है लेकिन आज बहुत सारी ऐसी चुनौतियां भी हैं जो समाज को खोखला बनाने का प्रयास कर रहे हैं। आधुनिकता की लहर से प्रभावित राणा थारु समाज की नई पीढ़ी मोबाइल, इंटरनेट और शहरीकरण के कारण अपनी अमूल्य संस्कृति, पारंपरिक पोशाक व बोली से दूर होती जा रही है। लोकगीतों और लोक नृत्य में पाश्चात्य संस्कृति समाहित हो रही है आज नई पीढ़ी के युवा अपनी राणा थारु बोली बोलने में वे शर्म महसूस करने लगे हैं ।आर्थिक विषमताएं, युवा पीढ़ी का नशे के प्रति झुकाव ,घटती कृषि भूमि, वन अधिकारों की अनदेखी, भूमि अधि ग्रहण आदि कई ऐसी चुनौतियां थारू समाज के आगे खड़ी है जिससे राणा थारू समाज जूझ रहा है।
यदि आज राणा थारू समाज की विरासत को बचाना है तो शिक्षा में स्थानीय संस्कृति का समावेश हो, पाठ्यक्रम में राणा थारू समाज की संस्कृति बोली और गौरवमय इतिहास को स्थान दिया जाए । सांस्कृतिक महोत्सव के आयोजनों में राणा थारु महोत्सव ,लोक नृत्य, लोक गीत, वेशभूषा व पारंपरिक पकवानों को स्थान दिया जाए। बोली शब्दकोश और लोक कथाओं को डिजिटल रूप में उपलब्ध कराया जाए ।स्थानीय हस्तकला और शिल्प को प्रोत्साहन मिले और इसके साथ राणा थारू समाज को उसके पारंपरिक अधिकार लौटाए जाए ,जिससे राणा थारु विरासत जीवित रह सके।
अंत में यह सत्य है कि राणा थारू समाज सिर्फ एक जनजाति नहीं बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक धरोहर है वह विरासत जो समय के तूफानों में भी अपनी लौ को जलाए हुए हैं। आज जब हर कोई आधुनिकता और वैश्वीकरण की दौड़ में शामिल है वही राणा थारू समाज अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने की प्रेरणा देता है । इसलिए यह जरूरी है कि दुनिया राणा थारू समाज को जाने, समझे और उनके संरक्षण में सहभागी बने । ताकि राणा थारू विरासत के संरक्षक आने वाली पीढ़ी को भी राह दिखा सके ।
लेखक - नवीन सिंह राणा
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