म सिंह: सादगी, संस्कृति और एक युग की अमर गाथा

प्रेम सिंह: सादगी, संस्कृति और एक युग की अमर गाथा
🖋️ नवीन सिंह राणा 


नोगवनाथ बिसाउटा पट्टी के उस छोटे से गाँव में, जहाँ सुबह की ओस जंगल की हरियाली को और निखार देती थी, प्रेम सिंह का जन्म हुआ। 1930 का दशक था—एक ऐसा समय जब भारत आजादी की जंग लड़ रहा था, पर गाँवों की दुनिया अपनी सादगी और संस्कृति में रची-बसी थी।
 प्रेम सिंह के पिता, श्री कड़े सिंह, गाँव के प्रधान थे। उनका नाम सुनते ही लोग श्रद्धा और भय से सिर झुका लेते थे। कठोर मिजाज के बावजूद उनका न्याय साक्षात धर्मराज की तरह था। गाँव में कोई विवाद हो, जमीन का बँटवारा हो या कोई नया परिवार बसने आए, कड़े सिंह का फैसला अंतिम होता। वे गाँव की सुरक्षा, संस्कृति और एकता के प्रतीक थे। उनके संरक्षण में गाँव एक परिवार की तरह बंधा था, जहाँ हर बच्चे में संस्कार और हर युवा में एकता की भावना बसी थी।प्रेम सिंह, कड़े सिंह के सबसे छोटे बेटे, अपने पिता की छत्रछाया में पले-बढ़े। उनके बड़े भाई मुल्ली सिंह और बड़ी बहन उनसे उम्र में काफी बड़े थे। उनका बचपन उस दौर में बीता जब खटीमा और सितारगंज का इलाका थारू समाज का गढ़ था। चारों ओर घने जंगल, कच्चे रास्ते और दूर-दूर बसे गाँव। जंगलों में चोरों और डकैतों का खौफ था। बरसात में रास्ते कीचड़ से लथपथ हो जाते, और पानी की किल्लत जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी। हैंडपंप नहीं थे, लोग कुएँ या कुइँया बनाते, जो गर्मियों में सूख जाते। गाँव वाले बड़े-बड़े मटकों में जुरिया नाला से पानी भरकर लाते और उसे 'अटा' में संभालकर रखते। यह वह समय था जब प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर जीना ही जीवन का मूलमंत्र था।मुश्किलों से भरा जीवन और अटूट हौसलाप्रेम सिंह का जीवन आसान नहीं था। घने जंगलों के पास बसे गाँव में हर दिन एक नई चुनौती लेकर आता था।

 खेती और पशुपालन ही जीविका का आधार थे। बरसात में फसलें डूब जातीं, सूखे में पानी की किल्लत जान लेती। जंगली जानवरों का खतरा हमेशा सिर पर मँडराता। फिर भी, प्रेम सिंह ने कभी हार नहीं मानी। उनके पिता से मिली सीख—मेहनत, ईमानदारी और धैर्य—उनके जीवन का आधार बनी। वे सुबह सूरज उगने से पहले खेतों में निकल जाते और दिन भर काले कम्बल की घोकी ओढ़कर काम करते, रात को तारों के नीचे लौटते। उनके हाथों में वह ताकत थी, जो पसीने और मेहनत से बनी थी।उस दौर में गाँव में केवल चार-पाँच परिवार थे लेकिन धीरे धीरे गांव का आकार बढ़ रहा था।घर घास-फूस के बने होते, फिर खपरैल की छतों ने जगह ली। दीवारें नरकुट या खरिया घास से बनाकर मिट्टी से लीपी जातीं, जो मजबूत और ठंडी होतीं। धीरे-धीरे ईंटों के पक्के घर बने, पर जंगल से लकड़ी की कोई कमी नहीं थी। घरों में मोटे खूँट, बल्लियाँ और डांसे लगाए जाते। कुछ घरों में 'पांड' बनाए जाते, जहाँ नीचे पशु और सामान रखा जाता और ऊपर परिवार रहता। बिना दरवाजे वाले घरों को 'बंगला' कहा जाता, जो आज के बंगलों से बिल्कुल अलग था। यह वह जगह थी जहाँ आग तापी जाती, खाना खाया जाता और बड़े-बुजुर्ग विश्राम करते। पशुओं के लिए 'सार', भूसे के लिए 'भिसौरी' और उपलों के लिए 'कनडोरी' बनाए जाते। ये छोटी-छोटी चीजें उस समय की व्यवस्था और सादगी को दर्शाती थीं।

संस्कृति और रीति-रिवाजों का संरक्षक
प्रेम सिंह न केवल अपने परिवार के लिए, बल्कि गाँव की संस्कृति के लिए भी एक संरक्षक थे। थारू समाज में हर रीति-रिवाज का अपना महत्व था, और प्रेम सिंह उसे पूरी श्रद्धा से निभाते। चाहे खेती की रस्म हो, हल्दी की रंगत हो या विदाई का भावुक क्षण, वे हर रिवाज में पूरे मन से शामिल होते। गाँव के उत्सवों में उनकी मौजूदगी एक अलग ही रौनक लाती। वे बच्चों को अल्हा-उदल की कहानियाँ सुनाते, रामायण के प्रसंगों से जीवन की सीख देते। उनकी आवाज़ में एक जादू था, जो सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देता।प्रेम सिंह ने कभी स्कूल की देहरी नहीं देखी, पर उनकी बुद्धिमत्ता किसी विद्वान से कम नहीं थी। पास के कुटरा गाँव में एक प्रधान के घर पर उन्होंने कुछ अक्षर सीखे। लिखना उन्हें बहुत अच्छे से नहीं आया, पर पढ़ने में वे माहिर थे। रामायण, विश्राम सागर और प्रेम सागर उनकी जुबान पर बसे थे। उनके हस्ताक्षर में एक खास ठसक थी, जो उनकी पहचान थी।

विवाह, परिवार और बढ़ती जिम्मेदारियाँ
जब प्रेम सिंह 18-20 साल के हुए, उनका विवाह हुआ। थारू समाज में विवाह केवल दो लोगों का मिलन नहीं, बल्कि दो परिवारों का बंधन था। बचपन में मंगनी हो जाती, और धीरे-धीरे यह रिश्ता मजबूत होता। लड़के वाले 'डाली' लेकर लड़की वालों के घर जाते, जिसमें जलेबियाँ और मिठाइयाँ रिश्ते की मिठास का प्रतीक होतीं। प्रेम सिंह ने भी इन रस्मों को पूरी शिद्दत से निभाया। लेकिन जीवन ने उनके लिए कठिन मोड़ भी रखे थे। उनकी पहली जीवन संगिनी ने विवाह के कुछ वर्षों बाद ही इस दुनिया को अलविदा कह दियाथा जिनसे उनको एक बेटा था। यह दुख उनके लिए गहरा था, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बाद में उन्होंने दूसरा विवाह किया, और उनका परिवार बढ़ता गया।प्रेम सिंह के चार बेटे, दो बेटियाँ, बहुएँ, नाती-नातिन और परनाती-परनातिन—यह उनका भरा-पूरा परिवार था। समय के साथ उनके बच्चों के विवाह हुए, और उनकी जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं। हर विवाह में वे पूरी तन्मयता से शामिल होते। समाज की रस्म और कामों में मिट्टी खोदने , लकड़ी करना, जंगल में गाय बैल च राना से लेकर हल्दी की रंगत और विदाई के भावुक क्षणों तक, वे हर रिवाज को निभाते। उनके लिए यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि संस्कृति को जीवित रखने का माध्यम था।

समय का बदलता रंग और जीवन का संघर्ष
19वीं सदी का वह दौर, जब प्रेम सिंह का बचपन जंगलों और सादगी के बीच बीता, धीरे-धीरे 20वीं सदी में बदल गया। खेती-बाड़ी, पशुपालन और चाँदी के सिक्कों की चमक अब आधुनिकता की चकाचौंध में धूमिल होने लगी थी। फिर भी, प्रेम सिंह के मन में वही पुराना जोश और रुतबा बरकरार था। वे बताते थे कि कैसे वे एक पाव घी और बाल्टी भर आम चट कर जाते थे। उनकी ताकत ऐसी थी कि वे अकेले ही घर के खूँटे उठा लेते। पर समय का पहिया रुकता नहीं। 21वीं सदी आते-आते उनकी शारीरिक ताकत कम होने लगी। उम्र का असर अब उनके शरीर पर दिखने लगा था, पर उनकी आत्मा में वही साहस और जोश बरकरार था।जीवन ने प्रेम सिंह को सुख और दुख दोनों दिखाए। उन्होंने दिन-रात मेहनत कर संपत्ति जोड़ी, अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, उनके विवाह किए और परिवार को एकजुट रखा। पर मानव जीवन का यह सच है कि वह कितने ही सुख देख ले, कितने ही दुख सह ले, अंत में सब कुछ पीछे छोड़कर जाना पड़ता है। प्रेम सिंह ने भी यही किया। उन्होंने अपनी संपत्ति, अपनी सीख और अपने संस्कार अपने बच्चों में बाँटे।
अलविदा और एक अनंत यात्रा
जनवरी 2022 में प्रेम सिंह की दूसरी जीवन संगिनी ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। यह उनके लिए एक और बड़ा आघात था। भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद, अब वह पहले जैसा साथ कहाँ था। चार बेटे, दो बेटियाँ, बहुएँ, नाती-नातिन और परनाती-परनातिन—सब थे, पर जीवन की वह गर्माहट अब धीमी पड़ रही थी। कुछ महीनों बाद, प्रेम सिंह ने भी अपने गाँव, अपने परिवार और इस दुनिया को छोड़कर उस अनंत यात्रा पर कदम रखा, जहाँ कोई साथ नहीं जाता। उनकी मृत्यु ने गाँव में एक शून्य छोड़ दिया।प्रेम सिंह की अमर विरासतप्रेम सिंह भले ही आज इस दुनिया में न हों, पर उनकी कहानियाँ, उनकी सीख और उनकी संस्कृति उनके परिवार और गाँव में हमेशा जीवित रहेगी। वे एक ऐसे युग के प्रतीक थे, जब जीवन में सादगी थी, मन में पवित्रता थी और समाज में एकता थी। उनका जीवन हमें सिखाता है कि मुश्किलें कितनी भी हों, मेहनत और हौसले से हर चुनौती को पार किया जा सकता है। उनकी गाथा केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस दौर की है, जब हर रीति-रिवाज, हर रिश्ता और हर मेहनत जीवन को जीवंत बनाती थी।प्रेम सिंह की यादें आज भी उनके परिवार की रग-रग में बसी हैं। जब भी कोई उनकी गाथा सुनाता है, उनकी हँसी, उनकी बातें और उनकी सीख एक बार फिर जीवंत हो उठती हैं। यह गाथा उस सादगी, उस संस्कृति और उस युग की अमर कहानी है, जो हमेशा प्रेरणा देती रहेगी।

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