राणा थारू समाज में उद्यमिता का प्रवाह कितना आवश्यक?
✍️ राणा संस्कृति मंजूषा 

प्रिय साथियों,

हम आज एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात करने के लिए एकत्र हुए हैं—हमारे समाज की दशा और दिशा। हम सभी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि हर समाज और समुदाय अपने विशेष गुणों और परंपराओं से पहचाना जाता है। इसी संदर्भ में मैं एक विशिष्ट दृष्टिकोण साझा करना चाहूंगा, जिसे नजरअंदाज करना हमारे लिए संभव नहीं है—मुस्लिम समुदाय में उद्यमिता का प्रवाह।

ध्यान दें, हर दिन हम जिन रोजगारों को देखते हैं, वे कितने आवश्यक हैं—कपड़ों की मरम्मत हो, गाड़ी की रिपेयरिंग हो, या छोटे-मोटे यंत्रों का संचालन—इन क्षेत्रों में मुस्लिम समुदाय का प्रभुत्व दिखाई देता है। आखिर ऐसा क्यों? कारण साफ है—यह दक्षता बचपन से उनके बच्चों में डाली जाती है। बाल्यकाल से ही उन्हें छोटे-छोटे कार्यों में निपुण बनाया जाता है, और यह निपुणता उम्र के साथ परिपक्व होती जाती है। 

दूसरी ओर, हमारे समाज के कुछ हिस्से अपने बच्चों को तथाकथित 'पब्लिक स्कूल' में भारी फ़ीस भरकर पढ़ाते हैं, लेकिन नतीजा क्या होता है? बच्चे यह सोचने लगते हैं कि उनके माता-पिता अनपढ़ हैं, और उनकी बातों को नजरअंदाज करने लगते हैं। क्या यही हमारी शिक्षा का उद्देश्य है? कि हमारे बच्चे मेहनत से दूरी बना लें, और दसवीं तक पहुँचते-पहुँचते नकारा हो जाएं? हमारे समाज में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, और यही प्रवृत्ति अंततः हमारे बच्चों को या तो मजदूरी की ओर धकेलती है या फिर उन्हें नशे और व्यर्थ गतिविधियों में उलझा देती है।

अब समय आ गया है कि हम इस समस्या की जड़ तक पहुंचें। हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया था कि समाज और परिवार का ढांचा मजबूत हो तभी हम आगे बढ़ सकते हैं। हमारे बुजुर्गों के समय, समाज में हर व्यक्ति की भूमिका तय होती थी—बुजुर्गों, युवाओं, और बच्चों की जिम्मेदारियों का बंटवारा उनकी क्षमता के अनुसार होता था। तब न तो चोरी-चकारी की घटनाएं होती थीं, न ही हत्या और अपराध का बोलबाला था। 

लेकिन आज हम अपने मूल्यों और परंपराओं से दूर हो गए हैं। अगर हमें आगे बढ़ना है, तो हमें दूसरों की अच्छाई को स्वीकार करना होगा। हमें उनसे सीखना होगा, जैसे मुस्लिम समुदाय की उद्यमिता की भावना को अपनाकर अपने बच्चों में उसी तरह की दक्षता पैदा करनी होगी। केवल इस तरह हम अपने बच्चों को आत्मनिर्भर और समाज का मजबूत हिस्सा बना सकते हैं।

हमारे बुजुर्ग कहा करते थे, "ऐसा काम करो कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।" लेकिन आज हम लाठी तोड़ने में ही अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रहे हैं। हमें समझना होगा कि संघर्ष का तरीका बदलने की जरूरत है। हमें अपने समाज की बुनियादी समस्याओं पर काम करना होगा, और युवाओं में वह शिक्षा और कौशल पैदा करना होगा जिससे वे सिर्फ पढ़े-लिखे नहीं, बल्कि सक्षम और स्वाभिमानी बन सकें।

समाज का सशक्तिकरण तभी होगा जब हम दूसरों की अच्छाई को आत्मसात करके अपनी गलतियों को सुधारेंगे। आइए, आज इस मंच से हम यह संकल्प लें कि अपने बच्चों को केवल शिक्षा नहीं, बल्कि जीवन का हुनर भी सिखाएंगे, ताकि वे किसी के अधीन नहीं, बल्कि स्वाभिमान से जीवन जी सकें। 

हमारी सोच में बदलाव ही समाज में क्रांति लाएगा। यह क्रांति हमें अपने बच्चों को सशक्त बनाकर, उनकी क्षमता को निखारकर और उन्हें सही दिशा दिखाकर लानी है। तभी हमारा समाज और हमारा भविष्य उज्ज्वल हो सकेगा।

धन्यवाद।

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