लघु कथा: "चाचा के बैलों की जोड़ी"
लघु कथा: "चाचा के बैलों की जोड़ी"
✍️ लेखक: नवीन सिंह राणा
📚 शैली: ग्रामीण, भावनात्मक, यथार्थपरक
🌾 कहानी प्रारंभ
गांव का नाम था बसंतपुर, गांव में बहुत सारे परिवारों के साथ ही अपने परिवार के साथ और वहाँ रहते थे रामदीन चाचा — एक सीधे-सादे, मेहनती किसान। उनकी पहचान थी उनकी सफेद बैलों की एक प्यारी जोड़ी, जिन्हें सब 'राजा' और 'रतन' के नाम से जानते थे। लेकिन गांववाले कहते थे — "रामदीन चाचा और उनके बैल एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।" और यह था भी सच।
रामदीन चाचा सुबह सूरज उगने से पहले उठते, राजा-रतन को प्यार से रोटी खिलाते, फिर खेतों की ओर निकल पड़ते। बैल भी मानो चाचा की हर बात समझते हों — जब हल चलाना होता तो खुद आगे बढ़ जाते, जब पानी पीना होता तो खुद रुक जाते। चाचा उनके साथ बातें करते, हँसते, गुनगुनाते।
राजा और रतन चाचा के लिए सिर्फ जानवर नहीं थे — वो उनके साथियों जैसे थे, बेटे जैसे थे। गांव के बच्चों को अक्सर चाचा कहते सुनाई देते, "इन बैलों ने मेरे साथ मिलकर ये खेत बसाए हैं, ये घर बनाया है, ये जीवन खड़ा किया है।"
🌿 एक सुबह, जो सब बदल गई...
एक दिन, चाचा की तबीयत अचानक बिगड़ गई। दिनों दिन तबियत में कोई सुधार नहीं हो रहा था और फिर उन्हें खाट से उठना भी मुश्किल हो गया। डॉक्टर, झाड़-फूंक, दवाई — सब कुछ हुआ, लेकिन उनका शरीर धीरे-धीरे जवाब देने लगा शायद शरीर में सांस के आलावा और कुछ शक्तिहीन हो गए थे।
राजा और रतन भी समझ रहे थे। वे खूंटे के पास खड़े रहते, धीरे-धीरे रंभाते — मानो कह रहे हों, "हमारा चाचा जल्दी ठीक हो जाए..." उनके बिना हम क्या करे, कैसे खेत जाएं, खेत की जुटाई करें और..........।
लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था। रामदीन चाचा एक सुबह हमेशा के लिए आंखें मूंद गए। और अपने हंसते खेलते परिवार को सदा सदा के लिए छोड़ कर चले गए।
गांव में शोक की लहर दौड़ गई। और जैसे ही चाचा की अर्थी उठी, राजा और रतन दोनों ज़ोर से रोने लगे — जैसे कोई इंसान अपनों को खोने पर रोता है। बिलखता है और स्मृतियां उसे और तड़पती हैं।
💔 मजबूरी की कीमत
कुछ ही महीनों बाद घर की हालत बिगड़ने लगी। चाची अकेली थीं, फसलें सूख रही थीं, और बैलों की देखभाल कठिन हो गई। एक दिन रिश्तेदारों की सलाह पर चाची ने वो निर्णय लिया — राजा और रतन को बेचने का।
चाची के लिए ये सिर्फ बैल नहीं थे — वो चाचा की आखिरी निशानी थे। लेकिन मजबूरी और घर के खर्चों ने दिल की पुकार को चुप करा दिया।
जब नए मालिक बैलों को लेने आए, तो चाची ने बार-बार राजा और रतन के माथे को सहलाया। "आज से ये तुम्हारे मालिक हैं, उनकी सेवा करना... बहुत कमाई करना..." यह कहते हुए चाची की आवाज़ कांप रही थी। आंखों से आंसू बहने लगे मानो अपने बेटे मां को सदा के लिए छोड़ कर दूर प्रदेश जा रहे हों।
बैल चुपचाप खड़े थे। उन्हें जैसे सब समझ में आ गया था। वे चाची की आंखों में देख रहे थे — जहां सिर्फ आंसू और स्मृति बाकी रह गई थी।
बैल जब दरवाजे से बाहर निकले, चाची उन्हें देखती रहीं — जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए। फिर वहीं बैठकर फूट-फूट कर रो पड़ीं। यह ऐसा विलाप था मानों अब दोबारा मुलाकात नहीं होगी।
गांव में हर कोई कह रहा था —
"रामदीन चाचा तो गए, लेकिन उनकी आत्मा आज भी इन बैलों में बसी है।"
वक्त बीत गया। लेकिन आज भी जब चाची खेत के उस कोने से गुजरतीं जहां चाचा हल चलाते थे, तो एक रंभाहट कानों में गूंजती —
राजा की...
रतन की...
और उस बीते वक्त की, जो अब सिर्फ यादों में था।
और आज भी है उन चाची के हृदय में, जो इस स्मृति को अपने अंतिम समय तक बसा रहेगा और जिसे वे विस्मृत करना भी नहीं चाहेगी।
यह कहानी बताती है कि सच्चा रिश्ता सिर्फ इंसानों से नहीं होता — भावना, सेवा और साथ से बनता है। चाहे वह एक किसान और उसके बैलों के बीच का रिश्ता ही क्यों न हो।
🖋️नवीन सिंह राणा
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