कविता: हे हिंदी प्रभा निकेतनम! ✍️ नवीन सिंह राणा
कविता: हे हिंदी प्रभा निकेतनम!
✍️ नवीन सिंह राणा
जो सुंदर कविता साझा की गई है – "हे हिंदी प्रभा निकेतनम!" – इसका एक-एक पंक्ति का अर्थ स्पष्ट रूप में नीचे दिया जा रहा है।
1. हे हिंदी प्रभा निकेतनम! हे भाषा विद्या निकेतनम!
➤ हे हिंदी ज्ञान की चमक की निवास स्थली! हे भाषा और विद्या का घर!
2. अनिकेत तुम, हिंदी निकेतनम।
➤ तुम सीमाओं से परे हो, फिर भी हिंदी के रूप में एक विशेष आश्रय हो।
3. ज्ञान की वाहिनी, अनुशंसा प्रवाहिनी,
➤ तुम ज्ञान की धारा हो, और श्रेष्ठता की प्रेरणा देने वाली हो।
पंक्ति "ज्ञान की वाहिनी, अनुशंसा प्रवाहिनी," का भावार्थ है:
"तुम ज्ञान को वहन करने वाली हो और श्रेष्ठ विचारों की सतत धार बहाने वाली हो।"
शब्दार्थ:
ज्ञान की वाहिनी: ज्ञान को धारण करने वाली, उसे फैलाने वाली।
अनुशंसा प्रवाहिनी: उत्तम विचारों, गुणों या आदर्शों की निरंतर धारा प्रवाहित करने वाली।
भावार्थ (विस्तार से):
यह पंक्ति किसी हिंदी भाषा के आश्रय स्थल की स्तुति में कही गई है। वह ज्ञान की संवाहक है — लोगों को शिक्षित करती है, सोचने की दिशा देती है। साथ ही वह उत्तम बातों (अनुशंसाओं), नैतिक मूल्यों और प्रेरणादायक विचारों का निरंतर प्रवाह करती है, जैसे एक नदी अपने जल से धरती को सींचती है।
अर्थात पंक्ति उस शक्ति की महिमा का वर्णन करती है जो ज्ञान और सद्विचारों का स्रोत बनकर मानवता का मार्गदर्शन करती है।
4. शब्दसारणी निकेता हो! हिंदी गौरव निकेता तुम।
➤ तुम शब्दों की मालिका की आधार हो! अर्थात आप हिंदी भाषा के अनगिनत, अमूल्य और हृदय को प्रिय लगने वाले शब्दों की माला के समान हो। और तुम ही हिंदी की गरिमा की पालक हो।
5. सरस्वती स्वरूपा हो, चित्तदर्शन निकेतनम,
➤ तुम सरस्वती का स्वरूप हो, और अंतःकरण को प्रकाशित करने वाली हो।
6. जग पथ प्रदर्शनम, ज्ञान दीप प्रज्वलनम।
➤ तुम दुनिया की पथप्रदर्शक हो अर्थात हिंदी भाषा में लिखे अनमोल वचनों से संपूर्ण विश्व को एक नया रास्ता मिलता है और जो ज्ञान का दीप जलाती हो।
7. स्वप्न सजी चिर यात्रा पर, संस्कृति-स्मृति की साक्षी बन।
➤ हे हिन्दी निकेतनम! तुम स्वप्नों से सजी हुई यह अनंत (लंबी) यात्रा पर हमारी संस्कृति और स्मृतियों की साक्षी बनकर चल रही हो और आगे भी यूहीं चलते रहना।"
विस्तार से अर्थ:
स्वप्न सजी": सुंदर कल्पनाओं, आशाओं या आदर्शों से सजी हुई।
"चिर यात्रा": एक दीर्घकालीन, निरंतर चलने वाली यात्रा — जीवन की या समय की यात्रा।
"संस्कृति-स्मृति की साक्षी बन": यह यात्रा हमारे अतीत की संस्कृति और यादों की गवाह बन रही है, उन्हें संजोकर आगे बढ़ रही है।
भाव:
यह पंक्ति बताती है कि जीवन या समय की यात्रा केवल वर्तमान की नहीं होती, बल्कि वह हमारे सपनों से प्रेरित होकर अतीत की संस्कृति और यादों को साथ लेकर आगे बढ़ती है। यह हमें यह भी सिखाती है कि संस्कृति और स्मृति को भूलकर आगे बढ़ना नहीं है — वे हमारी पहचान और दिशा दोनों हैं।
8. समाज पीड़ित जन की सेवा, बने शुद्ध तपस्व्य धन।
➤ तुम समाज के पीड़ित जनों की सेवा में लगकर तपस्वी की भांति पुण्य बन गई हो।
9. न भूले तुम माटी की गंध, न ही विस्मृत वन, नदियाँ, कंदराएँ।
➤ तुमने कभी अपनी मिट्टी की सुगंध, जंगल, नदियाँ, और गुफाएँ नहीं भुलाईं।
10. जहाँ जुड़ी धरोहरें बीते, वहीं लहरायी भाव-सुधाएँ।
➤ जहाँ हमारे पूर्वजों की धरोहरें हैं, वहीं तुमने भावनाओं की मिठास बिखेरी।
11. शब्द बने संजीवनी , ले कर चले सेवा-भाव।
➤
शब्दार्थ:
हे हिन्दी निकेतनम !तेरे शब्दों में संजीवनी बस जाए अर्थात हमारे बोले गए, लिखे गए या अपनाए गए शब्द इतने श्रेष्ठ, मर्यादित और गहरे हों कि वे हमारी जीवन-संस्कृति का हिस्सा बन जाएँ।
ले कर चलो सत्य स्वभाव अर्थात अपने स्वभाव में सच्चाई और नैसर्गिकता (प्राकृतिक सरलता) को अपनाकर चलो।
भावार्थ (विस्तार से):
यह पंक्ति एक नैतिक और सांस्कृतिक संदेश देती है। यह कहती है कि हमारे शब्द केवल संवाद के उपकरण न हों, बल्कि वे हमारी संस्कृति और जीवन-मूल्यों के प्रतीक बनें। और जब हम आगे बढ़ें, तो हमारे आचरण में सच्चाई और स्वाभाविकता हो — न दिखावा, न झूठ।
कहने
अपने शब्दों और व्यवहार को इतना सच्चा, शुद्ध और सांस्कृतिक बनाओ कि वे समाज में आदर्श बन जाएँ।
12. शब्द बने संस्कृति जीवन की, ले कर चलो सत्य स्वभाव।
➤ शब्दों के माध्यम से संस्कृति जीवंत बनी रहे, और सत्य का स्वभाव कभी नष्ट न हो।
13. उठें समय में नये विचार संग, पर आधार से न टूटे तुम।
➤ समय के साथ नये विचार आएं, लेकिन तुम अपनी जड़ों से कभी मत टूटो।
14. संबल, संयम और श्रम के संग, न हो कभी धरा से गुम।
➤ आत्मबल, अनुशासन और परिश्रम के साथ, इस धरती (संस्कृति) से कभी खोना नहीं।
15. हे हिंदी की दिव्य वाहिनी! जनमंगल वाणी!
➤ हे हिंदी!दिव्यता की धारा आप जनकल्याण की बोली हो!
पंक्ति का भावार्थ है:
"हे हिंदी! तुम पवित्रता से बहने वाली एक ऐसी ज्ञान-सरिता हो, जो जनसमुदाय के कल्याण की वाणी हो।"
शब्दार्थ:
हिंदी की दिव्य वाहिनी: हिंदी भाषा को एक पवित्र, आध्यात्मिक और ज्ञान की धारा के रूप में दर्शाया गया है।
जनमंगल वाणी: ऐसी वाणी (भाषा) जो लोगों का कल्याण करती है; सुख, शांति, और विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।
भावार्थ (विस्तार से):
इस पंक्ति में हिंदी भाषा को एक दिव्य शक्ति के रूप में सम्मानित किया गया है। उसे ऐसी पवित्र और प्रभावशाली भाषा बताया गया है जो समाज के कल्याण, upliftment और संस्कृति को जीवंत बनाए रखने में सहायक है। यह वाणी न केवल संवाद का माध्यम है, बल्कि यह लोगों के जीवन में शुभता और समृद्धि लाने वाली शक्ति है।
अर्थात पंक्ति हिंदी भाषा की महिमा और उसकी लोकहितकारी भूमिका की प्रशंसा करती है।
16. आशीष तुम्हें, निकेता वत्स!
➤ हे हिन्दी निकेतन! आपको मेरी ओर से स्नेह, सम्मान, और शुभ आशीष।
17. बनो सदा संस्कृति की रानी।
➤ तुम सदा इस संस्कृति की मल्लिका बनी रहो। अर्थात हे हिन्दी निकेतनम ! आप युगों युगों तक हमारी श्रेष्ठ हिंद संस्कृति की स्वामिनी बनी रहो। कहने का तात्पर्य है कोई अन्य भाषा का प्रभाव हमारी हिंद संस्कृति पर न पड़े कि उसका वर्चस्व ही बन जाए।
(सुधार हेतु प्रयास जारी हैं)
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