कविता का शीर्षक : "कहत हैं लोग"
कविता का शीर्षक : "कहत हैं लोग"
🖋️ निकेता राणा
यह कविता पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक संतुलन, और आधुनिक विकास के नाम पर हो रहे विनाश के विरुद्ध एक करुण पुकार है। जिसे निकेता राणा ने थारू बोली में पिरोने का सुंदर प्रयास किया है आइए इसका विस्तार से विश्लेषण करते हैं।
काव्य का मूल भाव
यह कविता इस बात को उजागर करती है कि आज विकास के नाम पर जो भी गतिविधियाँ हो रही हैं, वे वास्तव में न केवल प्रकृति को हानि पहुँचा रही हैं, बल्कि मानव जीवन के मूल आधार को भी समाप्त कर रही हैं।
प्रकृति-सौंदर्य और उसका महत्व
कविता में कई स्थानों पर प्रकृति की सुंदरता और जीवनदायिनी शक्ति का वर्णन किया गया है:
"कोई मार रहे जीव-जन्तु, कोई काट रहे जंगल"
यह पंक्ति प्रकृति के सौंदर्य की रक्षा के लिए चिंता प्रकट करती है। पेड़, जीव-जंतु, जंगल — ये सभी मिलकर धरती को सुंदर बनाते हैं। जब इन्हें नष्ट किया जाता है, तब वह सुंदरता, वह जीवन-शक्ति भी नष्ट हो जाती है।
"जंगल के कटने से जो प्रकृति को ही रहे हैं नाश"
इस पंक्ति में प्रकृति की वह शक्ति झलकती है, जो जंगलों के माध्यम से जीवन को संतुलित करती है। जंगल केवल हरियाली नहीं, बल्कि असंख्य प्राणियों का आश्रय और जीवनचक्र का आधार हैं।
प्रेरणादायक संदेश
कविता केवल चिंता प्रकट नहीं करती, बल्कि एक गहन प्रेरणा भी देती है:
"अपनी नस्ल से ही हम कर रहे हैं अपनी ही अगम्यता"
यह पंक्ति मनुष्य को आत्मनिरीक्षण करने के लिए प्रेरित करती है। क्या हम अपने ही भविष्य को मिटा रहे हैं? क्या हम अपने ही बच्चों के लिए एक बंजर और विषाक्त पृथ्वी छोड़ रहे हैं?
"आज ही मिलके सोचना होगा इस पहल की अगुवाई"
यह आह्वान है — सामूहिक चेतना और प्रयास का। यदि आज हम सब मिलकर कदम नहीं उठाते, तो कल बहुत देर हो जाएगी।
"तभी हमें समझ आएगा जंगल के रहते हैं हम जीवन के आधार"
यह अंतिम पंक्ति अत्यंत प्रेरणास्पद है। जीवन की जड़ें जंगलों, नदियों, पशु-पक्षियों में हैं। इन्हें बचाना स्वयं को बचाना है।
शिल्प सौंदर्य
कविता का शिल्प भावनात्मक, सरल एवं प्रभावी है:
कविता का प्रवाह प्रश्नात्मक और व्याख्यात्मक दोनों है।
शब्दों की पुनरावृत्ति (जैसे “जीव-जंतु”, “जंगल”) प्रभाव को बढ़ाती है।
कवयित्री ने "विकास", "प्रगति", "आधुनिकीकरण" जैसे शब्दों को चुनौती दी है, जिससे पाठक ठहरकर सोचने को विवश हो जाता है।
नैतिक और सामाजिक संदेश
यह कविता सिर्फ प्रकृति की सुंदरता की बात नहीं करती, बल्कि समाज के दोहरे मानदंडों पर भी सवाल उठाती है:
मनुष्य केवल अपने लाभ के लिए जंगल काट रहा है, जीव-जंतुओं का वध कर रहा है, लेकिन विकास का झूठा दिखावा कर रहा है।
कवयित्री हमें यह सोचने के लिए विवश करती हैं कि क्या यह असली प्रगति है या विनाश की ओर बढ़ता अंधा रास्ता है।
निकेता राणा की यह कविता केवल एक पर्यावरणीय चेतावनी नहीं है, बल्कि एक गहरी मानवीय पुकार है — प्रकृति को बचाइए, ताकि जीवन बचा रहे।
यह रचना हमें सिखाती है कि विकास केवल भवन, सड़क, और फैक्ट्रियों में नहीं है, बल्कि उस हरियाली में है जो जीवन देती है, उन नदियों में है जो जल देती हैं, और उन प्राणियों में है जो जैविक संतुलन बनाए रखते हैं।
विश्लेषक नवीन सिंह
टिप्पणियाँ