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राणा शिक्षकों के आत्मसम्मान और एकजुटता पर विचार

राणा शिक्षकों के आत्मसम्मान और एकजुटता पर विचार आज का दिन विशेष रूप से विचलित करने वाला था। यह विचलन किसी बाहरी समस्या का नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर की एक अजीब सी बेचैनी का था। ऐसा महसूस हो रहा था कि मैंने कुछ महत्वपूर्ण खो दिया है—शायद वह विश्वास, वह आत्मसम्मान, जो समाज की एकता और संजीवनी शक्ति का प्रतीक था। मन में विचार आया कि राजनीति, जो कभी समाज को मजबूत करने का माध्यम हुआ करती थी, आज कितनी नीचता पर उतर आई है। ऐसा लग रहा है जैसे यह राजनीति न केवल बाहरी समाज को बल्कि हमारे अपने राणा शिक्षकों को भी कमजोर कर रही है। जब हम खुद अपने आप को नहीं समझते, अपने अधिकारों की कीमत नहीं पहचानते, तब दूसरों के लिए हमें तोड़ना, बांटना कितना आसान हो जाता है। राणा शिक्षकों की विडंबना यह विचार बार-बार मन में उठ रहा है कि राणा शिक्षक आखिर क्यों अपने आत्मसम्मान को परिभाषित नहीं कर पा रहे। जब कोई राजनीतिक दल या गुट हमारे वोटों की ताकत को पहचानता है, तो वह हमसे केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। परंतु, क्या हमने कभी यह सोचा कि हमारा अपना सम्मान और निर्णय कहां है? आज की राजनीति केवल बांटने और तोड़ने तक सीमित ह...

सम्मान की राह

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सम्मान की राह चलो आज फिर इतिहास रचें, सम्मान की राह पर कदम बढ़ाएं। झुकें न कभी अपनों के आगे, अपनी पहचान को सदा निभाएं। ना झुके राजनीति के उस खेल में, जहां स्वार्थ की बातें होती हैं। हम हैं राणा, एकता हमारी शक्ति, सच्चाई हमारी जोती है। समर्पण से सींचें समाज की जड़ें, हर चुनौती को अवसर मानें। निडर बनें, पर विवेक से चलें, हर बंधन को स्नेह से पहचानें। दबाव में ना खोएं अपनी गरिमा, सम्मान से समझौता ना हो। जो साथी हमें तोड़ना चाहें, उनसे नफरत का रिश्ता ना हो। एकता का दीप जलाएं हर ओर, राणा का नाम ऊंचा करें। छोड़ दें स्वार्थ, अपनाएं समर्पण, सपनों का आकाश सच्चा करें। चुनाव तो बस एक पड़ाव है, मंजिल है समाज का उत्थान। राणा की एकता अमर हो सदा, यही हो हमारे जीवन का गान। 🖋️नवीन सिंह राणा 

कंजा बाग: राणा थारू संस्कृति का संघर्ष और अस्तित्व की चुनौती" एक मंथन

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 "कंजा बाग: राणा थारू संस्कृति का संघर्ष और अस्तित्व की चुनौती" एक मंथन  ।               काल्पनिक परिदृश्य  कंजा बाग गांव की वर्तमान स्थिति केवल एक सामाजिक बदलाव का उदाहरण नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी चेतावनी भी है, जो राणा थारू समाज को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुदा करने की दिशा में संकेत करती है। यह गांव जो कभी हरे-भरे बागों, खेती, और सांस्कृतिक परंपराओं का केंद्र था, धीरे-धीरे उन मूल्यों को खोता जा रहा है जो इस समाज की पहचान थे। समय के साथ, विकास और आर्थिक जरूरतों के कारण राणा समाज के कई लोगों ने अपनी पुश्तैनी जमीनें बेच दीं। बाहरी समुदाय, विशेषकर अन्य धर्म के लोगों ने यहां पर बसना शुरू कर दिया और अब उनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है। यह जनसंख्या विस्तार केवल क्षेत्रीय सीमाओं में बदलाव का मुद्दा नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संतुलन में भी गहरा असर डाल रहा है। नए बाशिंदों के आगमन और उनकी जनसंख्या वृद्धि से राणा समाज के लोग अपने ही गांव में एक ओर सीमित होते जा रहे हैं। राणा समाज के लोगों के लिए यह स्थिति चिंता का विषय है...

राणा थारू सांस्कृतिक भाषा प्रतियोगिता

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राणा थारू सांस्कृतिक भाषा प्रतियोगिता ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा  राणा थारू समाज की भाषा-बोली समाज की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस भाषा में न केवल हमारे विचार और भावनाएँ संजोई गई हैं, बल्कि इसमें हमारी परंपराएँ, रीति-रिवाज, और जीवन के कई पहलू शामिल हैं। भाषा के माध्यम से हम अपनी संस्कृति को न केवल अपने लोगों में जीवित रख सकते हैं, बल्कि इसे आने वाली पीढ़ियों तक भी पहुँचा सकते हैं। आज के दौर में, बाहरी भाषाओं का प्रभाव बढ़ने के कारण हमारी मातृभाषा का अस्तित्व खतरे में है। हमारी नई पीढ़ी, आधुनिक शिक्षा और डिजिटल तकनीक की वजह से अपनी ही भाषा से दूर होती जा रही है। इस परिस्थिति में, राणा थारू युवा जागृति समिति का यह कदम अत्यंत सराहनीय है। इस प्रतियोगिता का उद्देश्य सिर्फ एक सामान्य प्रतियोगिता नहीं है, बल्कि यह एक प्रयास है जो भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए एक ठोस पहल के रूप में देखा जा सकता है। इस प्रतियोगिता के प्रश्न भाषा के विविध पहलुओं को स्पर्श करेंगे, जैसे हमारे पारंपरिक कृषि यंत्रों का विवरण, उनके भागों के नाम, पारंपरिक भोजन बनाने के तरीके और...

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।।श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा लिखित

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असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।। श्रीमती पुष्पा राणा जी द्वारा लिखित  Published by Naveen Singh Rana  सभी भाई,बंधू एवं मित्रगणों को ज्योति पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। यह देखा जा सकता है कि आज-कल कोई भी तीज त्यौहार, समुदाय विशेष, धर्म विशेष अथवा क्षेत्र विशेष की मान्यताओं के आधार पर नहीं मनाये जाते। हर व्यक्ति, हर क्षेत्र तथा हर समुदाय तक सोशल मीडिया की पहुंच हो जाने के कारण सभी पर्व मीडिया में दिखाये जा रहे तौर तरीकों की नकल करते हुए मनाये जाते हैं जो अक्सर मनोरंजक,लोक लुभावन और व्यवसायिक उद्देश्यों को ध्यान में रख कर दिखाये जाते हैं ।स्वयं को आधुनिक तथा ग्लैमरस दिखाने एवं रील बनाने के चक्कर में लोग इन सबका अंधानुकरण भी करते हैं।  परन्तु आज हम चर्चा करेंगे राणा समाज द्वारा मनाये जाने बाले त्योहार "दिवारी" की , जिसको तथाकथित बुद्धिजीवियों तथा लेखकों द्वारा रहस्यमय बना दिया गया है। हम अक्सर "ल" की जगह "र" अक्षर का उच्चारण करते हैं। अतः दिवाली से दिवारी शब्द प्रचलन में आ गया।लोगों ने लिखा है कि राणा लोग (थारु जनजाति) दीपावली क...

थरुहट की आत्मकथा - आत्म संघर्ष और अस्तित्व की कहानी✍️ नवीन सिंह राणा

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थरुहट की आत्मकथा - आत्म संघर्ष और अस्तित्व की कहानी ✍️ नवीन सिंह राणा  तराई की उर्वर भूमि में बसा हुआ मैं, थरुहट। आज मुझे लोग ‘थरुआट’ के नाम से जानते हैं, पर मेरी कहानी सदियों पुरानी है। इस भूमि पर राणा राजपूतों ने अपने कदम उस समय रखे, जब उनकी प्यारी वसुंधरा ‘थार’ संकटों के घेरे में थी। मुझे अब भी याद है वे कठिन समय, जब ये लोग अपनी धरा, अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति को छोड़कर यहां, मेरे पास आ बसे थे। वह एक असहनीय पीड़ा का समय था, जब इन्हें अपने अस्तित्व और अपनी संस्कृति के सरंक्षण के लिए अपने घरों को त्यागना पड़ा था। उनके चेहरों पर छाई चिंता, दिलों में धड़कता डर, पर साथ ही, इरादों में एक अटूट संकल्प – मुझे सब कुछ अब भी याद है। जब वे पहली बार आए तो सबसे पहले मेरे एक कोने में, जिसे आज मीरा बारह राणा के नाम से जाना जाता है, पड़ाव डाला। बारह राणा राजपूतों का एक जत्था था, और उनके साथ उनकी प्रजा भी थी। इन राजपूतों ने एक अनकही जिम्मेदारी का बोझ उठाया था – अपने लोगों की सुरक्षा और अपनी विरासत का संजोना। जंगल, दलदल, और बीमारी से घिरी तराई की भूमि में वे घबरा सकते थे, पर उनके इरादों में दृढ...

क्यों जरूरी है संस्कारी शिक्षा हमारी आधुनिक नई पीढ़ी को? एक विचार ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा

क्यों जरूरी है संस्कारी शिक्षा हमारी आधुनिक नई पीढ़ी को? एक विचार ✍️ राणा संस्कृति मंजूषा  हमारे राणा थारू समाज का गौरवशाली इतिहास हमें हमेशा अपने स्वाभिमान और मूल्यवान संस्कारों की प्रेरणा देता है। यह एक ऐसा इतिहास है जो स्वाभिमान, साहस, और नैतिकता की मजबूत नींव पर टिका हुआ है। लेकिन वर्तमान पीढ़ी में जिस प्रकार नैतिक गिरावट देखने को मिल रही है, उसे अनदेखा करना हमारे समाज के लिए अत्यधिक नुकसानदायक हो सकता है। आज, शिक्षित होने के बावजूद, हमारी नई पीढ़ी कई नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों से विमुख होती जा रही है। इसका कारण मात्र शिक्षा का अभाव नहीं है, बल्कि संस्कार युक्त शिक्षा की कमी भी है। संस्कार युक्त शिक्षा क्यों आवश्यक है? संस्कार युक्त शिक्षा केवल किताबों में ज्ञान नहीं देती बल्कि एक व्यक्ति को नैतिकता, संयम, सहानुभूति, और विवेक का महत्व भी समझाती है। यह शिक्षा जीवन में सही और गलत के बीच भेद करना सिखाती है और व्यक्ति को समाज के प्रति जिम्मेदारी का बोध कराती है। इसके बिना, व्यक्ति केवल पढ़ाई में पारंगत हो सकता है लेकिन नैतिक मूल्यों की कमी के कारण गलत निर्णय ले सकता है। संस्कार ...